लेकिन यह हजारे अन्ना के कंधे पर बन्दूक रख कर उन लोगों पर फायर करने का एक आन्दोलन माना जायेगा जो शीर्ष पर बैठे हैं। आन्दोलन का उद्देश्य है भ्रष्टाचार मुक्त भारत। यह एक विशेष बिन्दु पर केन्द्रित है, रिश्वतखोरी बन्द करना।
इसी तरह काले धन को विदेशों से लाना और सोनिया गाँधी सहित कांग्रेस को हटाना, इसके लिए बाबा रामदेव ने अपने अन्धानुयायियों के कन्धों का बन्दूक रखने के लिए उपयोग किया है।
हजारे अन्ना का आन्दोलन बहुत उचित है हर व्यक्ति को इसका नैतिक समर्थक करना चाहिये। लेकिन यहाँ दो प्रश्न खड़े होते हैं।
क्या लोकपाल नाम से या अन्य किसी भी नाम से जो एक सरकारी, अर्धसरकारी या ग़ैर सरकारी संस्था और बन जायेगी और जो लोग उस संस्था के कर्ताधर्ता होंगे वे क्या किसी अन्य लोक से शिक्षित होकर या धार्मिक होकर अतिरिक्त संयमी लोग होंगे ?
दूसरा प्रश्न यह खड़ा होता है कि क्या भ्रष्टाचार की सीमा या परिभाषा वित्तीय लेनदेन तक सीमित है। समस्या बेईमानी या ईमानदारी की नहीं है। नीति एवं अनीति की नहीं है। समस्या यह है कि आज जो भी व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में अपनी सत्ता बनाना चाहता है या सत्ता तक पहुँचना चाहता है, उसने भी आखिर वही पाठ्यक्रम तो पढ़ रखा है जिस पाठ्यक्रम ने पढ़ने वालों को अनभिज्ञ से अज्ञानी बना दिया है। गीता में एक शब्द आया है "अनघ"। इस संस्कृत शब्द का अर्थ होता हैः अनघड़, अनभिज्ञ, निष्पाप।
जब तक व्यक्ति अनभिज्ञ है, तब तक वह निष्पाप होता है लेकिन जब वह ज्ञान के स्थान पर अज्ञान (खोटा ज्ञान, ग़लत जानकारी) का संग्रह कर लेता है तो वह पाप से ग्रसित माना जाता है। व्यक्ति अपनी अनभिज्ञता को मिटा कर ही तो ज्ञान लेना चाहता है यानी निष्पाप से पुण्यवान बनना चाहता है लेकिन अज्ञान के सम्पर्क में आकर वह पाप से ग्रसित हो जाता है।
जॉर्ज बर्नाड शा के शब्दों में यही बात: "व्यक्ति को ग़लत जानकारियों से हमेशा सावधान रहना चाहिये। ग़लत ज्ञान अनभिज्ञता से कहीं ज्यादा ख़तरनाक होता है।"
चूँकि आप जो टीम के सदस्य हैं वे सरकारी नौकरियों के एक विषय-विशेष में बँधे हुए हैं अतः आप भ्रष्टाचार के उस बीज से अनभिज्ञ हैं जो जड़ें फैलाता है।
यह तो ज़मीन से जुड़े हजारे अन्ना का कन्धा मिल गया जिसका उपयोग आपने राजनीति में प्रवेश करने का दरवाजा बनाने के लिए कर लिया है।
भ्रष्टाचार/Corruption एक बहुत बड़ा और भारी-भरकम शब्द है। आज ऐसा कौन सा क्षेत्र, समाज, विषय और व्यक्ति है जो आचरण के परिप्रेक्ष्य में भ्रष्ट नहीं है। सबसे पहले तो मेरे चरित्र को ही लें। यदि भ्रष्टाचार की मूल परिभाषा "उत्तरदायित्व निभाने में अयोग्य होते हुए भी सिर्फ अर्थोपार्जन की कामना के लिए काम करता है तो वह भ्रष्ट आचरण कहलायेगा" के अंतर्गत लें तो आज मैं नारद सबसे भ्रष्ट हूँ। यह बात अलग है कि विश्व परिदृश्य में, मैं भी अन्य भारतीयों की तरह सबसे कम भ्रष्ट हूँ, क्योंकि मुझ मे भी वही संस्कार हैं जो एक भारतीय भू-भाग में परवरिश पाने वाले में स्वाभाविक तौर पर पनप जाते हैं।
एक बहुत बड़े अखबार के प्रधान सम्पादक जब यह लिखते हैं कि "भारत में युरोपियन लोगों के आने के बाद पत्रकारिता का प्रारम्भ हुआ उससे पहले नहीं था।" तो उनकी यह जानकारी मनगढ़न्त जानकारी है। अपने मन से गढ़ी हुर्ह जानकारी है अतः इस विषय में वे अनघ भी नहीं रहे अज्ञानी हो गये। ऐसे अखबार वालों से क्या अपेक्षा की जा सकती है! जब तक आप मुझ नारद को अच्छी तरह नहीं जानेंगे कल्याणकारी पत्रकारिता नहीं कर सकते। क्योंकि यह जो आज की पत्रकारिता है, वह व्यापारिक पत्रकारिता है, जो कि निःसन्देह यूरोपियन लोगों की भारत को मानसिक रूप से अपंग बना कर, brain wash करके अपनी स्वार्थपूर्ण विचारधारा को स्थापित करने के लिए भारत को उनकी देन है।
अब तक मैंने अपने बारे में काफ़ी कुछ बताया है। क्योंकि आपने मेरे चरित्र को विद्वान के स्थान पर विदूषक बना दिया है। ज्ञानी के स्थान पर चापलूस ग़ुलाम बना दिया। समन्वयक के स्थान पर चुगलखोर बना दिया। आज सबसे अधिक पतन मेरा हुआ है... क्यों ?...क्योंकि मैं बिकने लग गया हूँ। आज मेरी बौद्धिकता वित्तीय सत्ता की ग़ुलाम है। वित्तीय सत्ता जो भी चाहती है अवश हुआ वैसा ही लिखना, छापना और प्रसारित करना पड़ता है। कभी मेरी प्रतिष्ठा ऐसी थी कि सम्राट तक मुझे सम्मान देते थे, लेकिन आज मुझे हर कोई दुत्कार देता है... क्यों ?...क्योंकि पत्रकारिता व्यापार बन कर रोज़गार का माध्यम बन गया है।
अन्ना हजारे एक जाना पहचाना नाम था अतः कुछ लोगों ने इस जाने-पहचाने कन्धे पर रख कर बंदूकें चलानी शुरू कर दी और मिडिया ने T.R.P. की सम्भावना / Scope तलाश ली। लो साहब आन्दोलन सफल हो गया।
वर्तमान काल खण्ड की एक भारी भरकम समस्या यह भी है कि बहुत अधिक बोलना, कहना, लिखना शुरू हो गया है। यह गतिविधि ज्ञान-विज्ञान के विस्तार के अनुकूल है क्योंकि वेद ( विज्ञान एवं विद्याओं ) का विस्तार श्रुति और लेखन परम्परा से होता है। लेकिन समस्या का मूल कारण यह नहीं है, मूल कारण है कि बोलने, कहने, लिखने वाले को व्याकरण का ज्ञान तो है लेकिन उसमें काम आने वाले शब्दों के अर्थों से वह अनभिज्ञ है। इस कारण जो सुन-पढ़ रहा होता है वह ज्ञान-विज्ञान के स्थान पर अज्ञान-अविद्या को ग्रहण कर लेता है। हिन्दी का स्तर कमज़ोर रहने का कारण भी यही है...संस्कृतजन्य शब्दों की जानकारी की कमी और व्याकरण का विस्तार। इस कारण यह भी कहा जाता है जानकारी फैलाने के साधन हैं लेकिन हम बेकार सामग्री का प्रसारण करते हैं।
यही दोष आज मुझ में अर्थात् मीड़िया, मीडियेटर, मिडिलमैन, पत्रकार, लेखक, समन्वयक इत्यादि में भी आ गया है। अतः सर्वप्रथम तो शब्द-ब्रह्म और भाषा विज्ञान के बारे में कुछ जानकारी देते हुए अपने बारे में अपने जातीय बन्धुओं से कुछ कह कर अपनी बात शुरू की है अतः आप इस देवर्षि नारद के तीनों ब्लॉग्स को आराम से पढ़ें।
अब मैं हजारे अन्नाजी से, हजारे भाईजी से कहना चाहता हूँ कि अब जब आपकी टीम राजनीति में जाना चाह रही है और आप राजनीति से परहेज़ करते है तो क्यों नहीं आप अपने कन्धों का उपयोग पूरे भारत की राजनीति में परिवर्तन के लिए करें। मैं भी राजनीति से इतनी नफ़रत करता था कि मेरे एक मित्र जो राजनीति में चले गए तो मैंने उनसे सम्बन्ध ही तोड़ दिया। मैं अशोक गहलोत के चुनाव क्षेत्र जोधपुर में हूँ। एकबार वे 80 के दशक में चुनाव के समय अशोक गहलोत का कार्यक्रम मेरे घर पर रखना चाहते थे तो मैंने ना कर दिया था।
मैंने धर्म के नाम पर व्याप्त अज्ञान [खोटी जानकारी] के विषय में हस्तक्षेप करने के लिए गीता की व्याख्या की है। जिसका उद्देश्य उस भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाना है जो बौद्धिक और शैक्षणिक विषयों में हो रहा है।
आर्थिक भ्रष्टाचार का नुकसान तो अन्ततः प्राकृतिक उत्पादक वर्ग को भुगतना पड़ता है। उस परिप्रेक्ष्य में अर्थव्यवस्था को आदि से अन्त तक सुदृढ़ करने के लिए एक सिंचाई प्रणाली पर शोध कार्य किया है। जो भारत को एक ऐसी सुदृढ़ स्थिति देगा जिस कारण भारत का भूमि-पुत्र हमेशा मजबूत बना रहेगा।
जो लोग काम और अर्थ की कॉमर्शियल गणित में उलझे हुए होते हैं वे पैसे कमाने की कामना में इतने कमीने हो जाते हैं की हम तो क्या उनके अन्दर का भगवान भी उन्हें नहीं सुधार सकता। अतः इन कॉमर्शियल प्रोफेशनल लोगों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे पैसे को लेकर अनियमितताएं नहीं बरतेंगे अतः आपको ऐसी व्यवस्था करनी होगी जिस व्यवस्था में वटवृक्ष भारत की जड़ें हमेशा के लिए पुनः मजबूत हो जाएँ।
अब जब आपके आन्दोलन का प्रभाव देखा तो मैंने अपनी योजना में, पत्रकार बन कर तीसरा आयाम भी जोड़ दिया। 'राजनीति को दल-दल मुक्त करो'।
आपको भी दलीय राजनीति के कारण, राजनीति से परहेज है। लेकिन अब जब स्थिति जटिल हो गयी है तो आपको चाहिए कि एक नये दल को बना कर या समर्थन देकर दल-दल का विस्तार नहीं करें। आज भारतीय राजनीति को नया आयाम देना होगा। मैं राजनेता बन कर राजनीति में नहीं आ रहा बल्कि एक पत्रकार बन कर हस्तक्षेप कर रहा हूँ।
अतः आपसे अपेक्षा करता हूँ कि आप और आपके अनुयायी अपना मानवीय धर्म निभाएं। संसद को दल- दल मुक्त करने के इस अभियान को समर्थन दें। जबकि आप तो एक राजनैतिक दल और बनाकर इस दल-दल के खेल को बढ़ावा देंगे। मैं अन्ना को इसलिए आदरणीय मानता हूँ कि उन्होंने किसानों और ग्रामीणजन के लिए काम किया है। अतः उनकी ईमानदारी पर शक नहीं किया जा सकता।
रही बात अन्ना टीम की और समर्थकों की, तो टीम से कहना है कि कृपया नया दल बना कर दलदल का विस्तार न करें। आप अपना एजेंडा बता दें और अपने समर्थकों से कहें कि जो इस एजेंडे पर सहमत हो उसव्यक्ति को निर्दलीय चुनें।
अन्ना समर्थकों से अनुरोध है कि वे मतदाता धर्म का पालन करें और अपनी शर्तों पर अपने क्षेत्र के स्थायी निवासी का, अपना जाना-पहचाना ईमानदार प्रतिनिधि का चुनाव करें जिससे आप चुनाव के बाद भी निधड़क होकर मिल सकें और अपने जिले को एक संपन्न और समृद्ध जिला बना सकें। मान कर चलें खुद मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता। हाँ अन्य राजनैतिक दलों की तरह एक अन्ना या केजरीवाल दल बन जाएगा और दलदल का और अधिक विस्तार हो जाएगा, लेकिन तब आपको स्वर्ग नहीं मिलेगा स्वर्ग तो टीम को मिलेगा।
मैं एक पत्रकार की श्रद्धा [हैसियत,औकात] से कहा रहा हूँ कि यदि मुद्दा भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम का है तो यह एक दूसरे पर कीचड़ उछालने से अधिक परिणाम नहीं दे पायेगा। क्योंकि नकारात्मक तथ्य का उत्तर भी नकारात्मक ही होगा। प्रत्येक बिंदु पर विषमता को प्राप्त कर चुकी इस अव्यवस्था के कुछ-कुछ बिन्दुओं को अपने-अपने अलग-अलग तरीके से सुधारने के प्रयास में हम कभी भी सफल नहीं हो पायेंगे। अतः हमें एक ऐसा तरीका अपनाना चाहिए जिसमे सब का समर्थन हो।
लेकिन यह होगा तब जब संसद में सर्व सम्मति बने। सर्व सम्मति तब सम्भव होगी जब संसद दल-दल से मुक्त होगी। स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री भी यह बात स्वीकार चुके हैं कि राजनैतिक असहमति के चलते संसद में आम सहमति नहीं बन पाती है।
कारण स्पष्ट है कि विपक्ष अपना विधर्म निभाते हुए असहमति जताता है, विपक्ष चाहे किसी भी पार्टी का हो विपक्ष, विपक्ष ही होता है। तो क्यों नहीं हम विश्व के अपने सबसे पुराने प्रजातंत्र प्रणाली को पुनः उसी
गौरवशाली तरीके से पुनः स्थापित करें, जिस प्रणाली में अलग-अलग विचारधारा के दल नहीं होते थे, जब कोई दल या व्यक्ति किसी एक वाद, विचारधारा अथवा दृष्टिकोण में बँध जाता है तो वह प्रथम चरण में पूर्वाग्रही और द्वितीय चरण में दुराग्रही हो जाता है। ऐसी स्थिति में वह सर्वकल्याणकारी विचारों से च्युत हो जाता है,चूक जाता है तब वह अचूक निशाना नहीं साध सकता और तब उसकी साधना निष्फल हो जाती है।
मैं किरण बेदी का भी तब से प्रशंसक हूँ जब वे प्रशासनिक व्यवस्था का हिस्सा थीं। लेकिन वह प्रशंसा सकारात्मक आवेश वाली उनकी व्यक्तिगत दृढ़ता को लेकर थी, लेकिन आज जब वे व्यवस्था से लड़ने के लिए अन्ना का उपयोग कर रही हैं तो यह बालाबुद्धि मानी जाएगी। अगर आप भ्रष्टाचार के विरुद्ध होने का, नकारात्मक आवेश वाला बचपना छोड़ कर ईमानदारी से राष्ट्र का भला चाहती हैं तो नकारात्मक आवेश में आकर विरोध की राजनीति के दलदल में धंसने के स्थान पर टीम के सभी सदस्यों को साथ लेकर सिर्फ एक चुनाव क्षेत्र में एक आदर्श नमूना ideal-model बना दें कि निर्दलीय प्रत्याशी को सर्वसम्मति से कैसे चुना जा सकता है। यह काम समय पर हो गया तो आगामी संसद के लिए होने वाले आम चुनावों में आप सर्वसम्मति से अपना बिल पास करवा सकते हैं और चुनाव आयोग को भी चाहे जैसा अधिकार दे सकते हैं ताकि ईमानदार व्यक्ति निर्दलीय राजनीति में निःसंकोच आ सकें।
अन्ना जी मुझे यह भी पता नहीं कि आप टीम को चलाते हैं या टीम आपको। अतः यह भी पता नहीं की यहबात आप तक पहुंचेगी भी या नहीं और चूँकि मुझे कोई जानता भी नहीं है और मैं अकेला ही इस मुहिम में हूँ अतः मेरे इस ब्लॉग को पढ़कर कोई मेरी बात आप तक पहुँचायेगा इसमे भी शंका है। लेकिन मैं भी सनकी हूँ अतः मेरी सनक तो देखो कि मैं अकेले अपने आर्थिक-मानसिक बलबूते पर इतना बड़ा मिशन लेकर चल रहा हूँ जिसका पूरा प्रारूप इस ब्लॉग श्रृंखला में देखने को मिलेगा।
अंततः बात इतनी सी है कि आप सभी, जो भी इसे पढ़ रहे है, सही मायने में ईमानदार हैं तो भ्रष्टाचारमुक्त भारत के लिए एक दूसरे की खाल खींचने के स्थान पर एक सिरे से नया भव्य महाभारत बनाने वाली सकारात्मक बात करें। यह कैसे संभव होगा यह दूसरे चरण की बात है, प्रथम चरण में भारतीय राजनीति को दलदल मुक्त करें ताकि जनप्रतिनिधि अपने दल के हाईकमान की ग़ुलामी से स्वतन्त्र हो, ताकि राष्ट्र स्वतंत्र कहलाये। अभी तो आपके प्रधानमंत्री भी स्वतन्त्र नहीं हैं। लेकिन आप सिर्फ सत्ता हस्तान्तरण चाहते हैं तो आपकी मर्जी। तब मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि आप अपनी नैतिकता को टटोलें।
आपने कहा है कि जनता से पूछते हैं, तो मैं एक पत्रकार के मनोविज्ञान से, उस जनता से पूछ चूका हूँ, जो आपके समर्थन में आन्दोलित थे, कि अन्ना पार्टी बना रहे हैं, आपकी क्या राय है। तो उनका उत्तर था वे भी भ्रष्ट हो जायेगे! अतः यही उचित तरीका है कि आप संसद को दलदल मुक्त करने और पार्टी प्रतिनिधि के स्थान पर अपना जन-प्रतिनिधि चुनने की बात कहें ताकि आप की गरिमा भी बनी रहे और एक नयी राजनैतिक पहल हो।
कुछ दिनों पहले जब प्रधानमंत्री निवास पर हो-हल्ला किया था, उस सन्दर्भ में मनीष सिसोदिया को एक चैनल पर देखा था। पत्रकार ने जब कहा कि इस तरह प्रधानमंत्री निवास पर और अन्य स्थानों पर प्रदर्शन का तरीका गलत है तो आपने उस पत्रकार का यह कह कर मुँह बन्द कर दिया था कि आप बताओ उचित तरीका क्या होना चाहिए ! तो उचित तरीका मैं बता रहा हूँ कि आप दो-चार जिलों में इस तरह से व्यवस्था बना कर बता दें कि अपने क्षेत्र का अपना निर्दलीय जन प्रतिनिधि कैसे चुना जा सकता है। जब तक सांसद पार्टी हाईकमानों के ग़ुलाम रहेंगे और पार्टी हाईकमान गठजोड़ राजनीति में सरकार को ब्लैकमेल करते रहेंगे तो भारत निरंतर रसातल में जाता रहेगा।
जब मैं भी वही चाहता हूँ जो आप चाहते हैं तो फिर अकड़ किस बात की है ! मैंने आपको दो-तीन मेल किये लेकिन एक तरफ तो आप जन समर्थन लेने की बात कर रहे हैं दूसरी तरफ आपको मेल का जबाब देना शायद गरिमापूर्ण नहीं लगा इसलिए मैंने यह कहा है कि मुझे पता नहीं टीम आपको चरा रही है या आप टीम को चला रहे हैं। यह पोस्ट भी मैं ईमेल कर रहा हूँ।
इस ब्लॉग श्रृंखला के माध्यम से मैं सबसे पहले तो उन लोगों के सम्पर्क में आया हूँ जो आप लोग इण्टरनेट का उपयोग कर रहे हैं और मेरी बात पढ़-सुन रहे हैं। आप से यही कहना है कि आप इसे आगे से आगे प्रचारित करें। अंततः मेरी बात उन लोगों तक पहुंचानी है, जो किसी न किसी प्राकृतिक उत्पादन से जुड़े हैं। क्योंकि वर्तमान का समय एक ऐसी व्यवस्था का कालखण्ड है कि हम सत्ता में बैठे व्यक्ति को न तो सुधरने को मजबूर कर सकते है और न ही वे इस स्तर के हैं कि धैर्यपूर्वक सुनकर धैर्यपूर्वक चिन्तन करके, धैर्यपूर्वक कोई ऐसी योजना बना सकते हैं, जो दीर्घकालीन और स्थायित्व देने वाली हो, क्योंकि उनकी ख़ुद की कुर्सी स्थायी नहीं है।
अतः इसका एक ही तरीका है कि दो साल बाद होने वाले संसदीय चुनाव आते-आते एक ऐसे वैचारिक आन्दोलन को चरम तक पहुँचाना है जो है तो सर्वकल्याण के लिए, लेकिन हमारा लक्ष्य जिस वर्ग के कल्याण के लिए है वह वर्ग बहुसंख्यक है और आहार का उत्पादन करता है। वह मतदाता भी है तो उत्पादक और उपभोक्ता भी है, उस तक यह बात पहुँचेगी तभी यह प्रथम चरण का आन्दोलन, "दल-दल मुक्त संसद" सफल होगा। यह कैसी विडम्बना है कि जो वर्ग आहार का उत्पादन कर रहा है वही वर्ग भूखमरी से परेशान होकर नगरों की तरफ पलायन कर रहा है और आत्महत्याएं कर रहा है और हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री को चिंता यूरोप को आर्थिक संकट से निकालने की हो रही है। N.D.A. ने तो उदारीकरण के नाम पर भारत की सार्वजनिक सम्पत्ति को नीलाम करने का जो काम किया उसकी तुलना में 3G और कोयला घोटाला कुछ भी नहीं है।
अतः अन्ना जी, भाई जी ! ऐसी स्थिति में आपकी चिन्ता सत्ता परिवर्तन नहीं बल्कि यह होनी चाहिए कि भारत को कैसे बचाया जाये।
थोड़ा कहा अधिक समझें। धन्यवाद !
नारद !
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