सबसे पहले कुछ धन्यवाद देना उचित होगा.पहला धन्यवाद तो यह कि लम्बे अंतराल के बाद जब मैं ब्लॉग को खोल कर देखता हूँ तो पता चलता है कि कुछ पाठक इसे लगातार पढ़ रहे हैं अतः इस बिंदु पर धन्यवाद.
पिछली पोस्ट मार्च में डाली थी तब चुनाव प्रचार जोरों पर था और मैंने चुनावी महाभारत संग्राम को नूरा कुस्ती नाम दिया था. है तो यह नूरा कुस्ती ही, लेकिन इस बार मतदाता के रूप में आपने पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता सोंपी है अतः धन्यवाद.
अब यह बधाई का बिंदु भी बनता है कि हमारे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी बड़ी दृढ़ता से निर्णय ले रहे हैं और निर्णय के बिंदु एक तरफ सत्ता के विकेंद्रीकरण की दिशा में भी है तो दूसरी तरफ़ निर्णय लेने के लिए सत्ता का केंद्र प्रधान मंत्री कार्यालय को बनाया जा रहा है जो उचित भी है क्योंकि निर्णय तुरंत तभी हो सकता है जब निर्णय करने का अधिकार एक व्यक्ति के पास हो साथ ही साथ निर्णय उचित और प्रिय यानी श्रेष्ठ भी हो यह तभी संभव है जब केन्द्रीय व्यक्ति सभी से राय लेकर निर्णय करे.
भारत के इतिहास में सम्राट अशोक और बादशाह अकबर दोनों महान इसीलिए कहलाये क्योंकि सभी की राय लेकर स्वविवेक से दृढ़ता से निर्णय लेते थे जबकि दोनों निरक्षर थे. अतः राजनैतिक सत्ता पर बैठे व्यक्ति के लिए साक्षरता वाली डिग्री महत्वपूर्ण नहीं होती,महत्वपूर्ण होता है सभी के विचार सुने और स्वविवेक से निर्णय ले.
नरेंद्र मोदी सरकार कितना कुछ कर सकती है यह अभी भविष्य के गर्भ में है जो इस बात पर निर्भर करता है कि वे इकोनोमिक्स और कोमर्स में फर्क समझ पाते है या नहीं. अभी तक का रुझान तो यही है कि मनमोहन सरकार की तरह प्रथम पांच वर्षों में आर्थिक विकास दर बढ़ेगी और अंतिम पांच वर्षों में भारत आर्थिक संकट में घिर जायेगा.
कारण स्पष्ट है कि मनमोहन सरकार माध्यम मार्गी विचारधारा वाले समूह की होते हुए भी वे विकास की परिभाषा निर्माण,मेनुफेक्चारिग,औद्योगिक करण,शहरी करण को ही समझ बैठे थे जबकि नरेंद्र मोदी सरकार तो उस समूह की है जिसे दक्षिण पंथी और पूंजीवादी विचारधारा की माना गया है. अतः मनमोहन सरकार से भी दो कदम आगे और तेजी से कदम बढ़ाते हुए मोदी सरकार 100 नए शहर और औद्योगिक विकास के मोडल पर काम कर रही है और साथ ही साथ उदारीकरण के नाम पर पिछली NDA सरककर की तरह सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को बेचने का काम करेगी तो मान कर चलें शुरूआती आंकड़ों में भले ही अच्छे दिन आजायें लेकिन यदि प्राकृतिक उत्पादन की अर्थव्यवस्था वाले वन और गाँव इसी तरह नष्ट होते गए तो बुरे दिनों को आने से कोई नहीं रोक सकेगा.
कोमर्स को जानने वालों और वित्त [मुद्रा,पूंजी] को ही धन धन समझने वालों की बुद्धि में यह एक छोटासा तथ्य भी स्पष्ट नहीं होपाता कि जब तक कृषि,पशुपालन और वनोत्पादन पर निर्भर भारत की 80 प्रतिशत जनसख्या की क्रय शक्ति नहीं बढ़ेगी तब तक शहरी करण और औद्योगिक करण को विकास की परिभाषा मानने वाले राष्ट्रवादी धृतराष्ट्र के राष्ट्र का भला होना संभव नहीं है.
देखिये आगे आगे होता है क्या! होगा वही जो मंजूरे खुदा नहीं बल्कि जमूरे खुदा होगा.
धन्यवाद !