सर्वप्रथम तो यह चाहिये कि हम भ्रष्टाचार को पारिभाषित करें ।
यदि हम भ्रष्टाचार की परिभाषा यह बनाते हैं कि काम के एवज में अर्थ को प्राप्त करना ही भ्रष्टाचार है तो इसे हम कभी भी समाप्त नहीं कर सकते। वैसे भी यह भ्रष्टाचार नहीं सिर्फ रिश्वत या भेंट है।
क्योंकि जब अर्थव्यवस्था ही काम एवं अर्थ के गणित के आधार वाली, कामार्थ भाव वाली यानी Commercial व्यवस्था होती है अर्थात् अर्थ-व्यवस्था का सेटअप ही Commercial होता है और अर्थ [ धन Wealth ] का अर्थ [ Meaning ] ही जब वित्त,पूँजी, मुद्रा, करेंसी Finance, money, currency होता है तो निःसन्देह कम से कम काम के एवज में अधिक से अधिक पैसा लेना बुद्धिमानी मान ली जाती है।
जब काम का चुनाव कार्य सन्तुष्टि Job satisfaction के अर्थ में नहीं लेकर पैसा कमाने के अर्थ में लिया जाने लग जाता है तो अधिक से अधिक पैसा कमाना स्वाभाविक आचरण में आ जाता है, तब उसे भ्रष्ट-आचरण कहने का अर्थ है भ्रष्टाचार के मूल कारण की तरफ से मुख फेरकर एक दूसरे को भ्रष्टाचारी कहना, यह अपने आप के प्रति भ्रष्टाचार है।
अब यदि आप कहें कि हम तो सत्ता में भ्रष्टाचार समाप्त करने की बात कर रहे हैं तो फिर सत्ता के परिप्रेक्ष में भी समझना चाहिये ।
तीन तरह की सत्ताएं होती है जो हमेशा एक दूसरे की पूरक होती है। आज इन तीनों सत्ताओं में भ्रष्टाचार है।
1. बौद्धिक सत्ताएं Intellectual existences
2. राजनैतिक सत्ताएं Political government bodies
3. आर्थिक सत्ताएं Economically existences
यदि ये तीनों सत्ताएं एक दूसरे से समभाव रखते हुए प्रजा के हित में तंत्र ( व्यवस्था, सिस्टम, पद्धति Arrangements, managements, administration, system, method ) बनाने में सफल हो जाती हैं तब कहीं जाकर समुदाय एवं व्यक्ति अपने आचरण में शिष्टता रख सकता है।
जब बौद्धिक एवं राजनैतिक दोनों सत्ताओं का ध्येय आर्थिक सत्ता द्वारा खरीद लिया जाता है और फिर आर्थिक सत्ता के केन्द्र में वित्तीय सत्ताएं हो जाती है तब तो फिर वित्त का आदान-प्रदान भ्रष्टाचार न रहकर शिष्टाचार हो जाता है और पूंजीपति भगवान की विभूति हो जाता है।
इसका अब आज की परिस्थितियों में एक ही तरीका है कि हम राजनीति को पूंजी निवेश, उच्च कमान और पूंजीपतियों से मुक्त करें। यह काम तीनों आयामों से एक साथ होना चाहिए।
1. इसका एक आयाम है, राजनैतिक पार्टी संगठनों को चाहिए कि वे अपने बंधक सांसदों को मुक्त, स्वतन्त्र, आज़ाद कर दे। यदि आप खुद आगे आकर ऐसा करते हैं तो आप की इज्जत रह जायेगी वरना एक दिन ऐसा आयेगा जब आपको अपमानित होकर ऐसा स्वीकारना पड़ेगा।
आप कहते हैं कि आप ईमानदार हैं लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि आप भ्रष्ट हैं अथवा सत्तारूढ पार्टी भ्रष्ट है। अथवा विपक्ष भी भ्रष्ट है। अगर आप राष्ट्र के प्रति ईमानदार हैं। तो आप को यह मुर्खतापूर्ण स्वार्थ छोड़ना पडेगा जैसे कि आपका मतदाता बैंक, आपकी पार्टी, आपके कार्यकर्ता, आपकी लॉबी इत्यादि।
2. दूसरा आयाम है कि चुनाव आयोग कुछ ऐसी व्यवस्था करे कि निर्दलीय व्यक्ति भी अपना परिचय ज़िले एवं तहसील स्तर पर दे सके।
इसके लिए हरेक तहसील एवं जिले में एक-एक राजकीय स्थान हों। जहां चुनाव प्रचार से लेकर, चुनाव के बाद भी जनप्रतिनिधि एवं प्रशासनिक अधिकारियों से जनसाधारण हो या विशिष्ट व्यक्ति सभी एक साथ निसंकोच मिल सकें और जिले के विकास के लिए एक जुट हों सकें।
3. तीसरा आयाम मतदाता के लिए है कि आप अपने अपने गली,मोहल्ले,गाँव,बस्ती,कोलोनी.सोसाईटी इत्यादि में अपना राजनैतिक जनप्रतिनिधि चुने औए वे सभी एक स्थान पर एकजुट होकर अपने क्षेत्र का प्रतिनिधि चुन लें। इससे चुनाव आयोग पर अतिरिक्त भार भी नहीं पडेगा।
इन तीनो आयामों से स्वतंत्र, स्वाधीन, स्वविवेक, निष्पक्ष जनप्रतिनिधि चुनेंगे तब भारत की स्वतंत्रता का पहला चरण शुरू होगा। तब राजनैतिक भ्रष्टाचार समाप्त होगा।
अभी न तो भारत आजाद है और न ही राजनीतिज्ञ. लेकिन जनता अवश्य ही धुँआधार, चंचल, असंतुलित, अव्यवस्थित, बेलगाम, अनियंत्रित, निरंकुश, स्वेच्छाचारी, स्वच्छंद, हठी, मनमौजी, असंयत हो गयी है।
क्यों ? क्योंकि:- अंधेर नगरी चौपट राजा, टके-सेर भाजी टके-सेर खाजा।
अब यदि राजनेताओं में थोड़ी भी इंसानियत बची हुयी है, तो वे अपनी अपनी डफली और अपना-अपना राग अलापने के स्थान पर सर्वसम्मति से एक सर्व-कल्याणकारी व्यवस्था बनाने के लिए ख़ुद पहल करें।
क्रमशः