When the British Government was preparing to transfer powers, the legendary of the movement, BAPU had said two things. 1. This is not freedom it's just transfer of rulling (but that will be powerless), so we have to fight a war of independence NOW. 2. Now the Congress (House) was to end, we have to restore the Democratic approach,admittedly. We probably did not understand his planning or probably understood it,so he was killed or executed. We have sufferred a lot. Now it's time to make the Indian politics free from parties.



(1.) निःसंदेह आपने यह तो सुन रखा होगा कि पंचायती राज व्यवस्था सदा से ही भारतीय गणतंत्र की प्रमुख विशेषता रही है। इस व्यवस्था की गरिमा/गहराई इस तथ्य पर टिकी थी कि 1. पंचों-सरपंचों के चुनाव सर्व सम्मति से होते थे। 2. अनेक दल /पार्टियाँ नहीं होती थीं। इसी सूत्र / फ़ॉर्मूला से अपने क्षेत्र का स्थाई निर्दलीय जनप्रतिनिधि चुनाव में खड़ा करके उसे सांसद और विधायक चुनें।

(1.) No doubt you've heard that Panchayati Raj is always key feature of the Indian Republic. The dignity of the system / depth based on the fact that 1. the election of jury - sarpanchs were held unanimously. 2. there were not Many parties. Elect the MPs and MLAs of your area by fixing independent public representatives to fight elections by the same Formula.

(2.) भारत में स्वायंभू अधिनायक को सम्मानित दृष्टि से देखा जाता है जबकि इसका ग्रीक अनुवाद डिक्टेटर प्रचलन में है, जो बदनाम शब्द है। स्वायंभू अधिनायक यानी किसी एक व्यक्ति के ही ब्रह्म/ब्रेन/दिमाग़/द्रष्टिकोण का नेतृत्व हो। स्वायंभू तीन वर्गों में वर्गीकृत कहे गए हैं-1.ब्रह्म परम्परा में ब्राह्मण 2.वैष्णव में संत 3.शैव में शम्भू। भारतीय जनमानस एक तरफ़ तो केन्द्रीय सत्ता में एक ही ज़िम्मेदार-जवाबदार स्वायमभू चाहता है ताकि उस से जबाब मांग सके तो दूसरी तरफ सत्ता का इतना अधिक विकेन्द्रीयकरण चाहता है कि जहाँ भी पाँच यार मिल गए स्व का तन्त्र बनाने की पंचायती स्वतंत्रता होनी चाहिए.

(2.) In India Swaymbhu esteemed leader is considered honerable while the Greek translation of this word dictator is infamous in circulation. Swaymbhu esteemed leader means the leadership of a single mastermind having divine brain. Swayambhu is classified into three different words of three traditional language's categories -1.BRAHMAN in Brahmin tradition 2.SAINT in Vaishnava 3.SHAMBHU in Shaiv tradition. The public wish a single person to be responsible in central government so that he can be asked for his duties. On the other hand, wish so much decentralization of power to find the five-man should have freedom to make the Panchayat.

(3.) भारतीय परिवार करोड़ों का दान दे सकते हैं लेकिन आयकर से बचने का हर संभव उपाय ढूँढते हैं. पूजापाठ में समर्पित हो सकते हैं लेकिन संविधान के नियमों में छेद करना बौद्धिक कुशलता मानी जाती है. क्योंकि अवचेतन में एक अवधारणा होती है कि संविधान तो मानव निर्मित होता है. अतः भारतीयों के लिए अनुबंध वाली वैदिक-व्यवस्था-प्रणालियाँ नहीं बल्कि आत्म-अनुशासन वाली ब्रह्मणी-व्यवस्था-पद्धतियाँ अनुकूल रहती हैं. उन्हीं को पुनर्स्थापित करना चाहिए.

(3.) Indian families can give donations of millions, but they search for every possible way to avoid income tax. They can be dedicated to worship but making hole in the rules of the costitution is considerd intellectual skills. Because their subconscious has a concept that the constitution is just man-made. So instead of the contract basis vedic system, the brahmin system is favorable for the Indians.

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।


मंगलवार, 17 जुलाई 2012

शास्त्र = धर्म + विज्ञान !

         संस्कृत सभी भाषाओं के उच्चारणों को संग्रहित करके फिर संस्कारित करके विकसित की गई वैज्ञानिक-धार्मिक भाषा है। संस्कृत के अपभ्रंश उच्चारण से लेटिन शब्दकोश विकसित हुआ जो ईसाईयों की धार्मिक-वैज्ञानिक भाषा है।
धर्म और विज्ञान ठीक उसी तरह के दो पक्ष हैं जैसे कि ज्ञानेन्द्रियाँ एवं कर्मेन्द्रियाँ,सर एवं धड़,चित्त  एवं पुट,दांया पंख-बाँया पंख,महिला एवं पुरूष इत्यादि अर्थात् एक दूसरे के पूरक,परस्पर निर्भर, समानान्तरण बिछी दो पटरियों की तरह। इस चैप्टर के माध्यम से यह प्रमाणित करना कि धर्म एवं विज्ञान जो कि अभिन्न है इसे भिन्न समझने वाले या तो धूर्त हैं जो अपनी स्वार्थ पूर्ति हेतु ऐसा प्रचारित प्रसारित करते हैं या फिर मूर्ख हैं जो धूर्तों के चंगुल में फँसे हैं।
    लेकिन यदि आप यह स्वीकार करने की समझ रखते हैं कि धर्म को एक वाणिज्य-व्यापार का रूप देने के लिए यक्षों ने जबसे इसका उपयोग अहिंसा के नाम पर ढाल के रूप में किया और हिंसा के रूप में घृणा फैलाने के लिए किया और राक्षसों ने इसका उपयोग आतंकी-हिंसा फैलाने के लिए किया और अहिंसा के नाम पर अपने विरोधियों को अंकुश में करने के लिए किया तब से धर्म नामक चिड़िया विलुप्त प्राणियों के चिड़ियाघर की रौनक बन कर रह गयी है तो आप न तो धर्म और विज्ञान को अलग मानने वाले धूर्त वर्ग में हैं और न ही मूर्ख वर्ग में हैं। 
संस्कृत की एक तरफ तो यह विषेषता है कि इसमें अथाह ज्ञान कोश रचा गया और सभी भाषाओं के असंख्य शब्द संस्कृत के अपभ्रंश उच्चारणों से विकसित हुए तो दूसरी तरफ संस्कृत का मूल शब्दकोश सिर्फ चार सौ-पाँच सौ शब्दों का है। 
वर्तमान में एक तरफ़ अंग्रेजी है, दूसरी तरफ हिन्दी। एक तरफ लेटिन व ग्रीक के शब्द-कोशों से अंग्रेज़ी विकसित हुई है और छा गई है। दूसरी तरफ संस्कृत और संस्कृत-शब्दकोष वाली हिन्दी अपने उच्चारण की कठिनाई के कारण लगातार हाशिये पर सिमटती जा रही है। इस चैप्टर में इस बात का प्रयास किया जायेगा कि संस्कृत्यजन्य हिन्दी को ऐसा दर्ज़ा दिया जाये जैसा कभी संस्कृत का था अर्थात् कुलीन,सभ्य,संस्कारित उच्च बौद्धिक वर्ग की भाषा का दर्ज़ा दिया जाये और किसी भी राजनैतिक पद एवं उच्च सरकारी पद पर नियुक्ति उसी को दी जाये जो संस्कृतजन्य हिन्दी जानता हो ताकि वह संस्कृत ज्ञानकोष से जुड़ने के साथ ही इतिहास से भी जुड़ जाये और पूरे भारत से भी जुड़ जाये और मूल ज्ञान-विज्ञान से भी जुड़ जाये और अपने आप से भी जुड़ा रहे। 
संस्कृत का शास्त्र शब्द जब लेटिन अमेरिका पहुँचा तो वैज्ञानिक साहित्य के साथ और जब ग्रीक पहुँचा तो दार्शनिक साहित्य के साथ पहुँचा था। अतः लेटिन में यह साईंस उच्चारित हुआ और ग्रीक में सेन्स अर्थात् शास्त्र। अतः शास्त्र ऐसा लिखित साहित्य है जो सेन्स (धर्म) और साईन्स (विज्ञान) दोनों को समानान्तरण रख कर बताता है। 

विश्व में भाषाओं की दो धारायें हैं !

विश्व  में भाषाओं की दो धारायें हैं। 
    एक है साहित्य,बोलचाल,भावों के आदान-प्रदान की भाषा। यह शैली प्राकृत परम्परा की भाषा शैली से प्रारम्भ होकर अन्ततः ब्रह्म परम्परा की भाषा तक पहुँच कर यह अपने विकास की अन्तिम पराकाष्ठा तक पहुँचती है। इस भाषा में शब्दों के भावों का महत्व होता है। इस वर्ग में पशु-पक्षियों की भाषा से लेकर शरीर की गतिविधि तक यानी Body Language तक आ जाती है। जिसका उद्देश्य होता है भावाभिव्यक्ति (भाव अभिव्यक्ति)। इस वर्ग की भाषा का विकास जब अन्तिम स्तर तक पहूंचता है तो सिर्फ़ शब्द ब्रह्म का उपयोग होता है, व्याकरण गौण हो जाती है। अतः शब्द भण्डार विशाल होता है। 
दूसरा वर्ग है धर्म एवं विज्ञान की शब्दावली की भाषा। जिसे वेद परम्परा की भाषा कहा जाता है। इस भाषा के शब्दकोष के मूल में कुछ गिनती के धातु रूप होते हैं उन्हीं से वैज्ञानिक नियमों के अनुसार शब्दों की रचना होती है। इस वैज्ञानिक शब्दावली अर्थात् धर्म एवं विज्ञान की शब्दावली में प्रत्येक शब्द के तीन स्तर पर अनेक अर्थ बनते हैं। 
1. शब्दार्थ:- महेश्वर सूत्र के अनुसार प्रत्येक शब्द का एक ही सुनिश्चित शब्दार्थ होता है, अनेक पर्यायवाची या पूरक शब्द नहीं होते हैं। धार्मिक प्रवचकों और वैज्ञानिकों के के लिए शब्द का शब्दार्थ जानना आवश्यक होता        है। 
2. तत्वार्थ (तात्पर्य):- प्रत्येक वैदिक शब्द के तीन तात्पर्य होते हैं। 
1. आध्यात्मिक - मनोवैज्ञानिक यानी मानव के स्वभाव को परिलक्षित करने वाले तात्पर्य। 
2. आधिदैविक-जीव के शरीर के परिप्रेक्ष्य में शरीर विज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले तात्पर्य। 
3. आधिभौतिक - भौतिक देह और उससे जुड़े भौतिक जगत यानी समाज विज्ञान से जुड़े तात्पर्य। 
3. भावार्थ:- भावार्थ को अभिप्राय भी कहते हैं। किसी शब्द के भावार्थों की कोई सुनिश्चित संख्या नहीं होती । जितने दिमाग़ उतने भावार्थ । 
इस तरह धातु रूपों से बने वैदिक संस्कृत शब्दकोष के मूल शब्द तो मुश्किल से चार-पाँच सौ ही होंगे लेकिन इनके एक-एक सुनिश्चित शब्दार्थ और तीन-तीन सुनिश्चित तत्वार्थ और अनगिनत अनिश्चित भावार्थ होते हैं। 
ब्राह्मणी भाषा एवं प्राकृत भाषाओं को संस्कारित करके विकसित की गई, भाषा विज्ञान के नियमों (सूत्रों) में बँधी भाषा है ‘‘संस्कृत‘‘। लेकिन जब शब्द का उच्चारण नियमानुसार नहीं होता तो वह शब्द अपभ्रंश कहलाता है। 
इस तरह शब्द की चार श्रेणियाँ हो गईं। (1) ब्राह्मणी भाषा के शब्द (2) प्राकृत भाषाओं के शब्द (3) इनसे विकसित हुई धर्म एवं विज्ञान की भाषा संस्कृत के शब्द (4) ज्ञान-विज्ञान के विस्तार का माध्यम बन कर जब ये शब्द विश्व  में फैले तो उच्चारण दोष के कारण विकसित हुए अनेक अपभ्रंश शब्द । 
    इसी तरह जानने की दो धारायें समानान्तर चलती हैं एक धारा को ब्रह्म परम्परा एवं दूसरी धारा को वेद परम्परा कहा गया है। ब्रह्म से ब्रेन शब्द बना और वेद से बॉडी शब्द बना है। इसी तरह शास्त्र से सेन्स और साईन्स दो शब्द बने हैं। तात्पर्य है कि सेन्स और साईन्स की दोनों परम्पराओं को ही ज्ञान एवं विज्ञान की परम्परायें कहा गया है। इन्हीं को धर्म और विज्ञान कहा गया है।
  शब्दों के शब्दार्थ, तत्वार्थ और भावार्थ को क्रमशः  शब्द-विज्ञान, धर्म एवं विज्ञान तथा साहित्य की शब्दावली भी कह सकते हैं। 
    लेकिन इस नियमों में बँधे शब्दों से अलग एक अर्थ होता है जिसे मन्तव्य कहते हैं। ब्राह्मण परम्परा कहती है कि भावना को अभिव्यक्त करने के परिप्रेक्ष्य में शब्दार्थ, तत्वार्थ और भावार्थ तीनों स्तर के अर्थ गौण होते हैं। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कहने वाले का मन्तव्य क्या है! इसको जानना ही पर्याप्त होता है बाक़ी सब शब्दों का आडम्बर है। जबकि वेद परम्परा कहती है कि शब्दों के सही-सही अर्थ जाने बिना यथा-अर्थ (यथार्थ) को समझने में चूक हो सकती है और व्यक्ति ज्ञान के स्थान पर भ्रामक अवधारणाओं में चला जाता है। 
दोनों परम्पराएँ अपने अपने पक्ष में सही है इनमे विरोधाभास नहीं है बल्कि दोनों मिलकर पूर्णता देती हैं।

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

शब्द-ब्रह्म का एक आयाम है महसूस करना ।

        वर्तमान में धार्मिक साहित्य के संस्कृत आधारित हिन्दी शब्दों के साथ यही दुखान्तिका हो रही है । एक दुखान्तिका (disaster) तो जानने के परिप्रेक्ष्य में है कि हम विश्वकी पहली वैज्ञानिक-धार्मिक भाषा संस्कृत के शब्दों को इस तरह से उपयोग कर रहे है जैसे कि बहुत सारे जीवाश्मों को जोड़ने के समय किसी का धड़ किसी के पैर, किसी की पूँछ और किसी का मुँह जोड़कर एक कपोल-कल्पित आकार बना कर फिर उस भूतकाल के भूत-प्राणी की काल्पनिक गुण-धर्मिता को बलपूर्वक स्थापित कर लेते हैं ।
शब्द-ब्रह्म का दूसरा आयाम है महसूस करना।शब्द कान में पड़ते हैं तब ब्रह्म यानी चेतना चैतन्य हो जाती है और रक्त-परिवहन और मांसपेशी तंत्र आवेशित हो जाता है। 
   इसका उदाहरण एक संस्मरण में है जो किसी पत्रकार ने लिखा था। एक ब्रिटिश भाषा विद्वान भारत में ही स्थाई रूप से रहने लगे थे और उन्होंने एक अंग्रेज़ी-हिन्दी शब्द कोष भी बनाया था। शायद उनका नाम फादर कामिल बुल्के था। वे कभी-कभी धोती भी पहनते थे और साफा भी बाँधते थे। एक दिन उन्होंने कहा आप लोगों को अंग्रेज़ी के स्थान पर अपनी मातृ-भाषा हिन्दी का उपयोग करना चाहिये। आप भारतीय लोग अंग्रेज़ी बहुत अच्छी जानते और बोलते हो। अंग्रेज़ी का इतना सुस्पष्ट उच्चारण तो अंग्रेज़ भी नहीं कर पाते, लेकिन जानना एक पहलू है, महसूस करना दूसरा पहलू। 
जब उनको अपनी बात और अधिक स्पष्ट करने के लिये कहा गया तो उन्होंने कहा ‘‘मैं अग्रिम क्षमा माँग कर आपसे कुछ गाली-गलौच करूँ तो आप नाराज़ मत होना।पहले मैं अंग्रेज़ी में गालियाँ निकालता हूँ।
तत्पश्चात् उन्होंने हमारे मुंह के सामने देख कर कहा:- 'यू नॉनसेंस, ब्लडी, ईडियट, स्टूपिड'  अब मैं आप को हिन्दी में निकालता हूँ: 'तू कुत्ता,कमीना,हराम-खोर, हरामी कहीं का, बेवकूफ़, मूर्ख।'
अब देखिये जब मैने अंग्रेजी में गालियाँ निकालीं तो आप के चेहरों पर तनाव नहीं बल्कि हास्य था लेकिन ज्योंही मैने हिन्दी में गालियाँ निकालीं आप के चेहरों पर एक आवेश दिखाई दिया, क्यों ? क्योंकि आप अंग्रेज़ी में काम में आने वाले अपशब्दों को सिर्फ़ जानते हैं जबकि हिन्दी शब्दों को आपने महसूस किया अतः आप ने ऐसा माना जैसे कि मैं सचमुच गालियाँ निकाल रहा हूँ ।
इस तरह संवेदनशीलता के दो पक्ष हैं। एक वह संवेदनशीलता जो ब्रह्म को हँसने अथवा क्रोधित होने के लिए आवेशित करती है और दूसरी वह संवेदनशीलता जो शब्द को सुनते ही ब्रह्म के क्षेत्र (मस्तिक के चुम्बकीय क्षेत्र) में एक डिज़ाइन बना कर व्यक्ति को दार्शनिक बनाती है और सत्य को जानने एवं महसूस करने की संवेदना भरती है । 
इस तरह जब हम किसी धार्मिक-वैज्ञानिक विषय का अध्ययन करते हैं तो हमें शब्द के अर्थ को शब्दार्थ, तत्वार्थ और भावार्थ तीनों अर्थों से समझना चाहिये । लेकिन जब हम रोचक शैली में साहित्य को पढ़ते हैं तब हम शब्द के भावार्थ को ही समझते हैं । इसी तरह जब हम किसी ऐसे व्यक्ति से बात करते हैं जो अपनी बात को मान्यता प्राप्त शब्दों में नहीं कह पा रहा है तो हमें उसके मन्तव्य को समझना चाहिये कि वह कहना क्या चाहता है ?
शब्द के यथा-अर्थ को जाने बिना हम समसामयिक यथार्थ से दूर चले जाते हैं । उदाहरण के लिए शब्द ब्रह्म नामक संयुक्त शब्द के सही-सही अर्थ को नहीं जानने का परिणाम ही है कि आपने शब्द-ब्रह्म के परिप्रेक्ष्य में अनेक भ्रामक अवधारणाऐं पढ़ी सुनी होंगी।
इस ब्लॉग में इस बिन्दु को लेकर यह अनुभाग लिखा जा रहा है।जो विद्वान और जिज्ञासु संस्कृतजन्य हिन्दी का प्रचार प्रसार करने में तथा संस्कृत के धार्मिक वैज्ञानिक शब्द को लेटिन के धार्मिक-वैज्ञानिक शब्दों से भी अधिक महत्वपूर्ण और अधिक ऊँचे स्तर पर स्थापित करने में सहयोग करने के इच्छुक हों तो चार तरीक़ों से सहयोग कर सकते हैं 
(1)  नैतिक समर्थन देकर इसे प्रचारित-प्रसारित करके।
(2)  इन शब्दों का अपनी भाषा शैली में सहजता से उपयोग करके 
(3)  आर्थिक सहयोग के रूप में अपने उत्पादन अथवा अपने नाम का विज्ञापन देकर।
(4)  क्षेत्रीय भाषाओँ में अनुवाद करके।यह चौथा सहयोग सर्वाधिक महत्त्व पूर्ण सहयोग होगा।


शब्द ब्रह्मध्वनि तरंगों एवं विद्युत चुम्बकीय तरंगों का संयुक्त उपक्रम ।

शब्द ब्रह्म
शब्द ही हमारे ब्रह्म (ब्रेन) में हलचल पैदा करते हैं। शब्द के अर्थ ही हमारे अध्ययन-अध्यापन, चिंतन-मनन के माध्यम होते हैं। अतःशब्द का यथा अर्थ (यथार्थ) जानना कल्याणकारी होता है। 
शब्द:- मुँह से निकलने वाली ध्वनी तरंगें। 
ब्रह्म:- ब्रेन से उत्सर्जित होने वाली चुम्बकीय तरगें।
शब्द:- मनुष्य के गले के अन्दर की मांसपेशियों के टकराने से ध्वनि पैदा होती है। वह ध्वनि जब निर्धारित वैज्ञानिक मापदण्ड से उच्चारित होती है तो जो उच्चारण होता है उसका नाम शब्द है।
ब्रह्म [संस्कृत शब्द] -यानि ब्रेन Brain [लेटिन शब्द] में पैदा होने वाली वे विद्युत चुम्बकीय तरंगे हैं जिन्हें भौतिक-विज्ञान की भाषा में चुम्बकीय बल रेखाओं वाला क्षेत्र कहा गया है और अध्यात्म-विज्ञान में  ब्रह्म-बल  कहा गया है। 
  शब्द-ब्रह्म:- जब शब्द सुनाई देता है तो ब्रेन में एक रासायनिक क्रिया होती है । उस रासायनिक क्रिया के माध्यम से हमारे ब्रेन नामक कम्प्यूटर में एक डिज़ाइन बनती है । डिज़ाइन शब्द संस्कृत के दर्शन शब्द का ही अपभ्रंश उच्चारण है । दर्शन को ग्रीक में फ़िलोसोफ़ी कहेंगे । ब्रह्म परम्परा में दर्शन करने का एक तात्पर्य देखना भी होता है । हम जिसे देखते हैं वह भी एक डिज़ाइन होती है और एक दार्शनिक जब किसी तथ्य पर चिन्तन करता है, विचार करता है, सोचता है तब भी उसके मस्तिष्क में एक डिज़ाइन बनती है । 
जब भी कोई डिज़ाइन बनती है तो उसके लिए पेपर,पृष्ठ-भूमि, आधार इत्यादि की आवश्यकता होती है । मस्तिष्क (Mind) में बनने वाली डिज़ाईन का आधार विद्युत चुम्बकीय तरंगें होती हैं या कहें विद्युत-चुम्बकीय तरंगों को आधार या माध्यम बना कर एक दार्शनिक तथ्यों पर आधारित सत्य का डिज़ाइन रूप में दर्शन कर लेता है । 
इसी डिज़ाइन को हम जब व्यक्त या अभिव्यक्त करते हैं तो पुनः शब्द की रचना होती है।यह सनातन धर्म चक्र है,जिसे सुदर्शन चक्र भी कहा गया है । 
इलेक्ट्रोनिक संचार माध्यमों में भी यही प्रक्रिया चलती है । ध्वनि एवं प्रकाश तरंगें, विद्युत-चुम्बकीय तरंगों में बदलती हैं और वे अपने गन्तव्य तक पहुँचकर पुनः ध्वनि एवं प्रकाश तरंगों  में बदल जाती हैं, यही प्रक्रिया प्रकृति निर्मित यंत्र (शरीर) के कम्प्यूटर (ब्रेन) में चलती है। 
शब्द ब्रह्म (संयुक्त शब्द) का तात्पर्य होता है ध्वनि तरंगों एवं विद्युत चुम्बकीय तरंगों का सम़-युक्त, संयुक्त उपक्रम । 
शिशु के गर्भ के बाहर निकलते ही वैद्य का दो बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित होता है ।
शिशु रोता है अथवा नहीं अर्थात् उसके शरीर रूपी यंत्र में ध्वनि पैदा करने वाली मांसपेशियाँ स्वस्थ तो हैं।
ध्वनि के प्रति शिशु आकर्षित होता है या नहीं । दोनों को मिलाकर वैज्ञानिक शब्दावली में कहा जायेगा ‘‘शिशु शब्द-ब्रह्म के प्रति संवेदनशील होना चाहिये ।‘‘
यही शिशु बड़ा होकर ज्ञानी-विद्वान-बुद्धिमान होना चाहता है तो उसके लिये भी यही मापदण्ड होता है कि वह  शब्द-ब्रह्म के प्रति कितना संवेदनशील है । तब उसकी गुणवत्ता इस दृष्टिकोण से जानी जाती है कि वह शब्दों के अर्थों को कितना समझता है । 
जब एक व्यक्ति भाषा का विद्वान बन कर व्याकरण तथा रोचक भाषा शैली को अतिरिक्त महत्व देता है लेकिन शब्द का यथा-अर्थ (यथार्थ) नहीं जानता है और शब्द को अन्य-अर्थ,अन्यार्थ, Otherwise Meaning में यानी मनगढ़न्त भावार्थ में लेने लग जाता है तो समझना चाहिये कि अब लेखन और श्रुति परम्परा में अज्ञान को विस्तार होने जा रहा है और यह अज्ञान धीरे-धीरे ज्ञान को आवृत्त कर देगा,ढक देगा ।वर्तमान में धार्मिक साहित्य के संस्कृत आधारित हिन्दी शब्दों के साथ यही दुखान्तिका हो रही है । एक दुखान्तिका (disaster) तो जानने के परिप्रेक्ष्य में है कि हम विश्व की पहली वैज्ञानिक-धार्मिक भाषा संस्कृत के शब्दों को इस तरह से उपयोग में ले रहे है जैसे कि बहुत सारे जीवाश्मों को जोड़ने के समय किसी का धड़ किसी के पैर, किसी की पूँछ और किसी का मुँह जोड़कर एक कपोल-कल्पित आकार बना कर फिर उस भूतकाल के भूत-प्राणी की काल्पनिक गुण-धर्मिता को बलपूर्वक स्थापित कर लेते हैं ।

सभी माननीय भारतीयों से अनुरोध !


उत्तिष्ठ-भारत !

(भारतीयों ! उठो)
सभी माननीय भारतीयों!
जय भारत ! इस ब्लॉग-श्रृंखला  के माध्यम (ज़रिये) से मैं भारतीय मतदाताओं के साथ-साथ आप सभी से मिलना चाहता हूँ जो राष्ट्र नामक संस्था के हित में कर्ता-धर्ता हैं ।
    1. औपचारिक Official,:- जो लोग नियमानुसार क़ायदे-कानून से संवैधानिक व्यवस्था के भाग हैं यानी कार्यपालिका, विधायिका और न्याय पालिका तथा गै़र सरकारी संगठन भी ।
    2. अनोपचारिक Unofficial,:- जो लोग नैतिक कर्तव्य, ज़िम्मेदारी समझ कर अपना धर्म समझकर राष्ट्र हित में सक्रिय हैं ।
      आप सभी समाज के प्रतिष्ठित, असाधारण प्रतिभाओं वाले विशिष्ट वर्गों के लोग हैं, आप भारत के सर्वसाधारण वर्ग के हित में अनेक प्रकार से बहुत-कुछ या थोड़ा-बहुत करते ही रहते हैं । आप ऊँचे लोग हैं जिनसे मिलने के लिए पहुँच चाहिये । आपसे हर कोई तो मिल ही नहीं सकता है । ऐसी स्थिति में मैं आपसे मिलने की बात कह कर दुस्साहस कर रहा हूँ यह मुझे अच्छी तरह पता है । क्योंकि मुझे यह पता है कि मैं साधारण हूँ ।
यदि कोई साधारण व्यक्ति दुर्भाग्य से स्वाभिमानी भी होता है तो वह तो आप से मिलने की सोच ही नहीं सकता क्योंकि उसे आप तक पहुँचने से पहले अनेक बार अपनी हैसियत,अपनी औकात का आंकलन (माप-तोल) करना पड़ सकता है । अब यदि इस स्थिति से भी समझौता कर-कराके आप तक पहुँच भी जायें तो आप लोगों के पास पूरी बात सुनने का समय नहीं होता अतः आप तक पहुँचने के लिए किया गया श्रम निरर्थक चला जाता है ।
अब जब आपसे मैं इस वेबसाइट के माध्यम से मिलकर अपनी बात कह रहा हूँ तो यहाँ मुझ साधारण का स्वाभिमान भी बना रह जायेगा और मैं आराम से सहजता से अपनी बात कहीं विस्तार से तो कहीं संक्षेप में कह सकता हूँ ।

अतः आप सभी भारतीय या तो मेरी बात अच्छी तरह सुनें वर्ना.........

सर्वविदित हास्य है जो आपने भी सुन रखा होगा । दुबारा सुनने में भी हर्ज़ नहीं है ।
पति:-मेरे कपड़े तुरन्त धो देना वर्ना ...........
खाना अच्छा बनाना वर्ना..........
जुतों के पॉलिश कर देना वर्ना...........
धमकी सुन-सुन कर पत्नी परेशान हो गई  । एक दिन सर्दियों की सुबह-सुबह................
पतिः- पानी गर्म कर देना वर्ना .............
पत्नीः- वर्ना क्या ....... वर्ना क्या कर लोगे ?
पतिः- (धीरे से) वर्ना ठण्डे पानी से नहा लूँगा !
अतः मैं भी आपसे कहता हूँ कि मेरी भावनाओं को समझें वर्ना ...............

    जब भी कोई साधारण व्यक्ति किसी से मिलता है तो उसके सामने सबसे बड़ी समस्या यह आती है कि उसे अपना परिचय देना पड़ता है । आप लोगों के सामने अपना परिचय देते हुए उसे शर्मिन्दगी होती है यही स्थिति मेरी भी है ।
आप बड़े-बड़े प्रतिष्ठित लोगों के सामने मुझे भी अपना परिचय देते हुए संकोच हो रहा है । अतः मैं यह कह रहा हूँ कि मेरा नाम, मेरी वय, मेरी डिग्री, मैं किस जाति, क्षेत्र, परिवार में पैदा हुआ ये सभी बातें इतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं । यह परिचय तो मैं अपनी बात कहते-कहते देता रह सकता हूँ । अभी जिस काल-खण्ड और जिस परिस्थिति में मैं जो तथ्य बताना चाहता हूँ और जो कहना चाहता हूँ उसका मन्तव्य क्या है ? यह जानना अधिक महत्वपूर्ण है ।
इसके अलावा, जो दूसरा कारण है उसे मैं पुनः दोहरा देता हूँ कि व्यक्ति चाहे कितना ही साधारण हो वह किसी न किसी वर्ग में वर्गीकृत तो होता ही है और वह अपने उस वर्ग-विशेष के विशेष दृष्टिकोण से तथ्य को देखता है ।
उदाहरण के लिए अभी-अभी एक मुद्दा खड़ा हुआ है जिसे भ्रष्टाचार के विरूद्ध में लोकपाल विधेयक का अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में चलने वाला शुरूआती आन्दोलन कह सकते हैं । उसमें जो अग्रणी हैं, वे आप लोग संविधान के जानकार विशिष्ट लोग हैं। आपका एक विशेष दृष्टिकोण है और आपने भ्रष्टाचार नामक विशिष्ट विषय में रिश्वत नामक विशिष्ट विषय का मुद्दा उठाया है ।
     आपके प्रतिपक्ष में भी विशिष्ट लोग है जो अपनी-अपनी विशिष्ट प्रतिक्रियाऐं दे रहे हैं जिसमें समर्थन भी है तो शंका भी है । कहीं कहीं तो आशंका भी है कि कहीं ये मुद्दा सफल नहीं हो जाये लेकिन अधिकांशतः यही विचारधारा है कि भ्रष्टाचार समाप्त होना असम्भव है ।
मेरा भी यही कहना है । क्यों ?
क्योंकि मैं भी एक साधारण भारतीय हूँ। अतः भ्रष्टाचार और प्रशासनिक व्यवस्था पद्धति दोनों की रग-रग से वाकिफ़ हूँ अतः जानता हूँ कि आप जिस विशिष्ट पद्धति से भ्रष्टाचार मिटाना चाहते हैं उसमें विशिष्ट तरीक़े से छेद करना सभी को आता है ।
भ्रष्टाचार के अनेक आयाम हैं । एक व्यक्ति यदि धन-राशि नहीं लेकर अपने परिजन, परिचित, पारिवारिक व्यक्ति को आत्मीयता से लाभ देता है तब भी वह भ्रष्टाचार माना जायेगा । तब फिर भारतीय संस्कृति की आत्मीयता और मानवता का क्या होगा ? उस बिन्दु पर एक समाज-वैज्ञानिक कहेगा, भारतीयों में पहले जैसा आपसी सहयोग और सहृदयता नहीं रही।
इस तरह यह एक विरोधाभासी स्थिति बन जाती है। ऐसा ही विरोधाभास सभी समस्याओं के प्रति है।चाहे उद्योग और वाणिज्य व्यापार में लेलें या धर्म के धन्धे में लेलें,भ्रष्टाचार कहाँ नहीं है लेकिन चूँकि आप विशिष्ट लोग सिर्फ शासन-प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार में भी सिर्फ पूंजी के आदान-प्रदान को ही भ्रष्टाचार मान रहे हैं क्योंकि आपका साबका [दुखद सामना] उसी भ्रष्टाचार से पड़ा है अतः आपका मंतव्य तो उचित है लेकिन यह तरीका समस्या का समाधान नहीं कर सकता.
एक विशिष्ट व्यक्ति हमेशा समस्या को विशिष्ट कोण से देखता है क्योंकि वह उस विषय का विशेषज्ञ होता है जबकि साधारण व्यक्ति यदि संवेदनशील होता है तो वह विषय में बँधा हुआ नहीं होता अतः वह उसे समग्र दृष्टिकोण से देखता  है। लेकिन विडम्बना यह है कि आज कोई भी व्यक्ति साधारण नहीं रहा। सभी लोग अपने-अपने वर्ग में स्व-अनुष्ठित धर्म और स्व-निर्धारित अर्थ को स्थापित करने में लगे रहने वाले विशिष्ट हो गये हैं। अतः सही बात तो यह है कि मैं जन साधारण में आने वाला व्यक्ति अपना परिचय देने लायक रहा ही नहीं।   लेकिन चुंकि जनसाधारण होने के नाते मैंने भारत की प्रत्येक समस्या का समग्र दृष्टिकोण से अध्ययन किया तो पाया कि सभी समस्याऐं एक दूसरे से जुड़ी हैं और इनका केन्द्र हैं हमारे दिमाग़ जो कि अलग-अलग हैं। आप सच में ईमानदारी से भ्रष्टाचार मुक्त भारत चाहते हैं तो कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि मेरे द्वारा कही जा रही बातों का मंतव्य समझें, यह महत्वपूर्ण है।
मैं विशिष्ट अथवा असाधारण नहीं हूँ अतः मेरा परिचय महत्वपूर्ण नहीं है। फिर भी मैं अपना परिचय बातों-बातों में देता रहूँगा लेकिन जब महत्वहीन क्रिया यदि किसी बड़ी क्रिया के बीच-बीच में अवरोध पैदा करे तो वह महत्वहीन छोटी क्रिया, बड़ी क्रिया में नकारात्मक भाव से महत्वपूर्ण हो जाती है ।
एक चम्मच दही जब अनुकूल परिस्थिति में पाँच लीटर दूध को जमाकर दही बनाता है तो उस द्रव्य का भाव बढ़ जाता है जबकि वही एक चम्मच दही प्रतिकूल परिस्थिति में दूध को फाड़ कर उसकी पौष्टिकता को नाकारा बना देता है। यहाँ तक की वह फटा हुआ दूध, नुकसान बचाने के लालच में खा लिया जाये तो कभी-कभी जानलेवा भी हो सकता है।
अतः जब अनुकूल परिस्थिति आयेगी तब मैं अपनी परियोजना को जमाने के लिए ‘‘जामण‘‘ का काम करने के लिए सामने आ जाऊँगा। लेकिन अभी दूध कच्चा है। आप तो पहले से जानते हैं कि कच्चे दूध में दही का ‘‘जामण‘‘ लगा कर दूध को गर्म करना अविद्या मानी जायेगी।
अभी तो दूध गर्म करना है, फिर ठण्डा करना है, फिर इसमें जामण लगेगा।
इस प्रतिकात्मक भाषा को स्पष्ट करूँ तो यह है कि अभी मैं यदि किसी से मिला तो निःसन्देह मिलने वाला व्यक्ति अथवा समूह किसी न किसी वर्ग विशेष का होगा, परिणामस्वरूप कोई अन्य विशिष्ट वर्ग, फ़िक्सिंग का आरोप लगा सकता है क्योंकि यह ब्लॉग श्रृखला विश्व से पहले भारत की आर्थिक, बौद्धिक तथा राजकीय तीनों समस्याओं को आपस में सन्तुलित करने के लिए माध्यम के रूप में, मीडिया के रूप में ‘‘नारदीय परम्परा (स्वतन्त्र पत्रकारिता की परम्परा)‘‘ के रूप में उपयोग की जायेगी।
अतः आपसे यह अनुरोध क्षमा-याचना सहित कर रहा हूँ कि अपनी मानसिक ऊर्जा इस बिन्दु पर लगायें कि ‘समझें तो सही कि यह व्यक्ति आखिर कहना क्या चाहता है'। साथ ही साथ यह भी अनुरोध है कि इस ब्लॉग को प्रचारित प्रसारित करें, इसे एक वैचारिक-आन्दोलन का रूप दें।
तीसरा एक कारण यह भी है कि मैं आत्म-केन्द्रित और संकोची व्यक्ति हूँ। बचपन से लेकर आज तक मैं जहाँ कहीं भी रहा, दो-चार लोगों तक ही मिलना जुलना रहता था। वे दो-चार लोग भी अलग-अलग वर्गों में से एक-एक व्यक्ति के रूप में होते थे। वर्ग विशेष के एक व्यक्ति के माध्यम से पूरे वर्ग से मेरा परिचय हो जाता।  मैं बहुत सारे लोगों से एक साथ मिलने में असमर्थ भले ही न होऊँ लेकिन असहज महसूस करता हूँ ।
अतः आप मेरे परिचय के रूप में यही समझें जो कि व्यावहारिक बुद्धि वाले अनेक लोगों ने एक वाक्य कहा जिसमें दो अलग-आचरण को महत्व दिया मुझ में वे दोनों आचरण एक साथ हैं। वाक्य है:-
(अ) जिसे पढ़ने में रूचि होती है वह व्यक्ति कभी भी अकेलापन महसूस नहीं करता।
(आ) जिसे बागवानी में रूचि होती है वह व्यक्ति कभी भी अकेलापन महसूस नहीं करता ।
मेरा कहना है:- ‘‘जो व्यक्ति एकान्त में पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों के बीच में रहते हुए अध्ययन तथा चिन्तन-मनन करने का अभ्यस्त होता है, उसके मस्तिष्क में अमृत (हारमोन्स) का स्त्राव होता है अतः वह अपने जीवन में जो आनन्द लेता है वह आनन्द अतुलनीय है ।‘‘
अतः मैं सभी भारतीयों से यह अनुरोध कर रहा हूँ कि यदि आप मेरे एकान्त में अध्ययन-चिन्तन-मनन के रूप में किये गये दार्शनिक-कर्म का लाभ तथा न्यूनतम संसाधनों से, (न्यूनतम जल से, न्यूनतम क्षेत्र पर, न्यूनतम समय में, न्यूनतम परिश्रम से) अधिकतम उपज देने वाली एक सिंचाई पद्धति पर लम्बे समय से शोध और अनुसंधान के रूप में किये गये वैज्ञानिक-कर्म का लाभ, व्यक्तिगत-पारिवारिक-सामाजिक-राष्ट्रीय- मानवीय तथा जीव मात्र के हित में करने के लिए उत्सुक होते हैं तब तो मेरे परिचय का अर्थ है, वर्ना.......
जिस काम से लाभ की बजाय हानि हो, वह काम क्यों करना ? मेरे परिचय से लाभ कुछ नहीं होना है। हाँ !  हानि अवश्य हो जायेगी ।

प्रतिनिधि से शपथ पत्र लिखवाएँ एवं आप भी उन्हें वचन दें !


      जिन्हें आप निर्दलीय के रूप में समर्थन देने के लिए योग्य पात्र समझते हैं, उनसे एक शपथ पत्र लिखवाएँ जिसमें निम्न बिन्दु हों...
     (1) विधायक विधानसभा में तथा सांसद संसद में ऐसा एक बिल पास करवायेंगे जिसके अनुसार  प्रत्येक तहसील मुख्यालय के पास ग्रामीण क्षेत्र में छोटा भवन तथा प्रत्येक जिला मुख्यालय के पास ग्रामीण क्षेत्र में एक-एक बड़ा भवन बनाया जाये, जो विधायक एवं सांसदों का राजकीय निवास स्थान भी हो तो कार्यालय और क्षेत्र का राजनैतिक मुख्यालय भी हो ताकि क्षेत्र का कोई भी व्यक्ति चाहे वनवासी हो, ग्रामीण हो या नागरिक हो अपने जनप्रतिनिधि से निःसंकोच मिल सके और व्यक्तिगत,पारिवारिक से लेकर सार्वजनिक समस्याओं के निदान और समाधान पर अपना पक्ष रख सके।
वहाँ कैण्टीन और सभा स्थल भी हों ताकि आहार और वैचारिक आदान प्रदान की सुविधा भी उपलब्ध  हो सके । 
      (2) सांसद और विधायक से यह शपथ पत्र भी लिखवा लिया जाये कि जब तक विधानसभा एवं संसद का अधिवेशन चल रहा हो तब तक वे वहाँ पूरे समय उपस्थित रहेंगे,बाक़ी के समय में अपने-अपने चुनाव क्षेत्र के राजकीय आवास पर जनसम्पर्क के लिए उपस्थित रहेंगे। अपने निजी व्यापार-धन्धे से मुक्त होकर यदि वे ऐसा करते हैं तो उन्हें आपकी तरफ़ से भी यह वचन मिलना चाहिये कि आप उन्हें जीवन पर्यन्त, जब तक स्वस्थ रहेंगे,निर्विरोध चुनेंगे तथा वयोवृद्ध होने और कार्यक्षमता कम होने पर वे स्वतः त्याग पत्र दें देंगे लेकिन तब भी आप उनकी जीविका का ध्यान रखेंगे और सलाह मशवरा लेते रहेंगे। लेकिन अयोग्य होने पर अथवा दुर्बल आचरण का होने पर उन्हें मध्यावधि में भी त्याग पत्र देने के लिए मजबूर कर सकेंगे।यह आप मतदाताओं के कर्तव्य और अधिकार क्षेत्र में होगा । 
आप अपने आप के प्रति श्रद्धा रखें। आप एक मतदाता के अधिकारों का उपयोग करके ऐसा कर सकते हैं। जब आपको अपने आपके प्रति श्रद्धा और विश्वास होगा तभी आप अपने-अपने जनप्रति के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास रख सकेंगे। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को हमेशा ध्यान में रखें। वर्ना यह भी सत्ता  हस्तान्तरण होकर रह जायेगा। स्वतन्त्रता सपना बनी रहेगी। 
    आपने अन्ना हज़ारे का उदाहरण देखा है,जिनके पास डिग्री नहीं है। अतः योग्यता की परिभाषा मात्र डिग्री नहीं हो बल्कि राजनीति में नैतकता की नीति का समर्थन ही योग्यता की पहली परिभाषा होनी चाहिये। 
इस प्रथम प्रस्ताव पर केन्द्रित रह कर ‘‘परस्पर वार्ता‘‘ का दौर आज और अभी से ही शुरू कर सकते हैं। 

1प्रस्तावना

ब्रह्म सत्यं जगंमित्थ्या:- नीयत से ही नीयति तय होती है । 

        निर्दलीय राजनैतिक मंच में आपका स्वागत है:- नैतिक समाज की प्रतिष्ठा तो राजनीति की नैतिकता ही सुनिश्चित करती है। अतः प्रस्तावना में मैं कुछ प्रस्ताव रख रहा हूँ क्रमशः रखे जाने वाले ये प्रस्ताव इस वैचारिक आन्दोलन का क्रमबद्ध कार्यक्रम पुरा होते होते राजनैतिक घोषणा पत्र बने तो वह हमारा अपना घोषणा पत्र होगा ।   
       विद्यार्थियों से, जो वयस्क मतदाता नहीं हुए हैं उनसे भी यह अपेक्षा करता हूँ कि आप सभी विद्यार्थी भारतीय मतदाता से समपर्क करें और विषेष रूप से नवयुवा मतदाता से मैं यह अपेक्षा करता हूँ कि वे आगे आएँ और सक्रिय होकर वैचारिक स्तर तथा धरातल के स्तर, दोनों स्तरों पर इस आन्दोलन को शुरू करें।
       एक समय था, जो इस तथाकथित आजादी से पूर्व तक भी अवशेष रूप में था, तब अध्यापक-समाज सभी समाजों और सामाजिक कार्यों का नैतृत्व करता था,लेकिन आज जब अध्यापक समाज भी वेतन- भोगी कर्मचारी बन कर नोकर,गुलाम,पैसे का लोभी दीन-हीन-कृपण बन गया और बाकी सभी समाज भी स्वान प्रवृति से ग्रसित होकर एक दूसरे समाज पर गुर्राने- चिल्लाने-भौंकने से बाज नहीं आ रहे हैं और जिनको परम्परागत समाज से मोह नहीं रहा वे नए नए समाज बना कर इस स्वान-कर्म को अंजाम दे रहे हैं तब इस समय अब आपका विद्यार्थी-समाज ही एक मात्र ऐसा समाज बचा है अतः आप से अपेक्षा है कि आप सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त हो कर, अपना भविष्य स्वयं बनाने के लिए आगे आयेंगे ।  
          वैचारिक स्तर पर तो आप से अपेक्षा करताहूँ  कि आप प्रिण्ट मीडिया और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के माध्यम से वार्तायें और चर्चाये शुरू करें तथा धरातल के स्तर अर्थात् प्रेक्टिकल स्तर पर आप प्रत्येक छोटे-छोटे क्षेत्र में प्रबुद्ध वर्ग का एक समूह बनायें और फिर एक ऐसे व्यक्ति की खोज करें जो तहसील स्तर अर्थात् विधायक के स्तर के व्यक्ति हों। उसे आप निर्दलीय के रूप में खड़ा करें और चुनें ताकि वह आपका और आप के क्षेत्र का जनप्रतिनिधि बन सके। जबकि अभी जो भी नेता हैं वे आपके जन प्रतिनिधि नहीं है और ना ही वे आगे जाकर राष्ट्र के प्रतिनिधि बनते है  बल्कि वे तो मात्र अपनी पार्टी के द्वारा थोपे हुए पार्टी प्रतिनिधि होते हैं। अनेक लोग इससे भी नीचे गिर जाते हैं और पार्टी में भी सिर्फ अपनी लॉबी के समर्थक होते हैं ।
          सत्ता दल में होते हैं तो अनुचित  निर्णय का भी समर्थन करते हैं और यदि विपक्ष में होते हैं तो राष्ट्रहित के निर्णय का भी विरोध करेगें। जबकि सच्चाई यह होती है कि कोई भी निर्णय न तो पूर्णरूप से हितकारी ही होता है और न ही पूर्ण रूप से अहितकारी होता है।प्रत्येक कदम या तथ्य के दोनों पक्ष होते हैं अतः प्रत्येक कदम पर विवेक की आवश्यकता होती है। 
       आपको चाहिये आप अपने अपने क्षेत्र में ऐसे कुछ लोगों को चिन्हित करें और उनसे सामुहिक स्तर पर चर्चा करें जिनको सर्वसम्मति से अपना विधायक और सांसद चुन सकें। 
         इसके लिए आपको सक्रिय होकर एक माहोल बनाना होगा तथा पंचायत स्तर से लेकर जिला स्तर तक प्रबुद्ध लोगों की गोष्ठियां आयोजित करनी होगी । इन गोष्ठियों के माध्यम से कुछ या पाँच पाँच व्यक्तियों के टीम बनायें वे सभी टीमें मिलकर सिर्फ एक व्यक्ति को चुनाव में खड़ा करने का निर्णय लेंगे ताकि राजनीति न फैले । निर्विरोध हों तो कहना ही क्या ? तब तो चुनाव खर्च भी बच जायेगा.
          सभी मतदाता-समूह [ टीम ] मिलकर अपने अपने क्षेत्र के ऐसे प्रबुद्ध लोगों को चिन्हित करें जो सभी जन प्रतिनिधि बनने की योग्यता रखतें हों और फिर सभी मिलकर किसी एक के लिए पूर्ण सहमति जता कर उसे चुनाव में खड़ा करें और चुनें । 
    यह प्रतिनिधि आपके क्षेत्र का स्थाई निवासी पहले से हो या अब स्थाई बन गया हो। आप अपने प्रतिनिधि के प्रति दो विरोधाभाषी अधिकार रखेंगे । 
1.एक तो यह कि आप उन्हें आजीवन के लिए चुन रहे है और 2.दूसरा यह कि यदि वे आपकी अपेक्षाओं पर खरा न उतरें तो उन्हे पांच वर्ष तक ढोने की आवश्यकता नहीं है। तुरन्त त्याग पत्र देने के लिए मजबूर कर सकें । 
      यदि संसद जो कि अनेक दलों द्वारा बनाया गया दल-दल हो गया है वह निर्दलीय बन जाती है तभी हम संसद की पूर्ण सहमति से संविधान में चाहे जैसा परिवर्तन करके व्यावहारिक रूप में स्व का तंत्र बना सकते है. अर्थात् स्वविवेक से प्रशासनिक ढ़ाचा बना सकते है। 
     वर्तमान का ढ़ांचा भारतीयों का स्वयं का बनाया हुआ नहीं है बल्कि ब्रिटिस सरकार से गोद लिया हुआ दत्तकपुत्र है। इस ढांचे में यानी व्यवस्था पद्धति में भ्रष्टाचार मुक्त समाज की कल्पना तक नहीं की जा सकती जबकि संसद के निर्दलीय हुए बिना सर्वसम्मति की कल्पना नहीं की जा सकती क्यों कि भारतीय राजनीति में अकर्म को कर्म कह कर उसका श्रेय लेने की संस्कृति विकसित हो गई है । 
      आप मतदाता यदि चाहते हों कि भारत पुनः बौद्धिक राजनैतिक और आर्थिक रूप से पहले स्वयं शक्तिशाली बने तत्पश्चात् विश्व के अन्य राष्ट्र इस ढ़ाचे का अनुसरण करें तो आप सक्रिय होने का प्रमाण दें, मैं एक एक करके सभी तथ्य स्पष्ट करता जाऊंगा आप उस पर मन्थन करके स्वविवेक से एक नये ढाचे को विकसित करते जायें ।
       इसके लिए ना तो सरकार से सहायता की याचना करनी है और ना ही न्यायालय में याचक बन कर याचिका दायर करनी हैं और ना ही किसी संस्था या राजनैतिक या अन्य प्रकार का Organization, संस्था, पार्टी इत्यादि रजिस्टर्ड कराना है बल्कि स्व-अधीन होकर स्व-विवेक से स्व का तंत्र बनाना है ।
      आपके आन्दोलन में पदों पर अधिकार जमाने वाले पदाधिकारी नहीं बल्कि सम्मानित एवं आदरणीय लोग होने चाहिए। उनमें एक ऐसी बड्डपन की प्रवृति होनी चाहिये कि खुद के किये हुए कार्य का श्रेय भी सभी सहयोगीयों को दें। यह तभी सम्भव होगा जब आप पदाधिकारी परम्परा वाली संस्था के मोह से मुक्त होंगे .
       मैं जो डिजाईन,जो संरचना बनाने का सुझाव देने जा रहा हूँ उस डिजाईन में आपकी सभी समस्याओं का हल इसलिए है कि मैं जो तथ्य रखुंगा वे  तर्क-संगत और वैज्ञानिक धरातल पर प्रामाणिक होंगे लेकिन उसमें शंका इसलिए है कि मेरी बातें आपकी मान्यताओं के विपरीत लग सकती है।
          क्या? आपका तुच्छ अहंकार यह स्वीकार कर लेगा कि ये तथ्य सिद्ध बातें उचित एवं हितकारी है अतः हमें सुझाव स्वीकार कर लेना चाहिये । शायद आप न कर पायें यही शंका है ।
     लेकिन मेरा धर्म है प्रयास करना होना न होना यह उस उपर वाले पर निर्भर है जो हमारी उर्धमूलाकार शारीरिक सरंचना में ब्रह्म (ब्रेन) के रूप में हमारे उपर प्रभुत्व जमाये बैठा है । क्योंकि ब्रह्म ही सत्य है जो आपके अहंकार,जो कि आपकी आत्मा,आपके आत्म का प्रतिनिधि है,उस अहंकार के स्तर को विशाल कर सकता है.यदि आप का अहंकार परस्पर टकाराकर तुच्छ [कमजोर] नहीं पड़ेगा तो आप इन राष्ट्रों और साम्प्रदायिक धर्मो के नाम पर बनाये गये हमारे स्वअनुष्ठित धर्मो, स्वयं द्वारा बनाये गये बनावटी सांप्रदायिक धर्मो को वर्तमान की परिस्थितियों के अनुरूप पुनः नया रूप दे सकते हैं।ये स्वअनुष्ठित धर्म सनातन धर्म नहीं है जो कि अपरिवर्तनीय होता है। 
       अब यदि हमारे अंहकार का स्तर ऊँचा है तो हम अपने आत्म-भाव नामक आत्म-विश्वास से यह सोच सकते हैं कि हमे यह जो संविधान मिला है वह हमारे ही जैसे हमारे अग्रजों ने बनाया है और अब जब विषमताऐं निरन्तर बढ़ती ही जा रही है तो हम हमारे उपर थोपी गई विकास की परिभाषा, हमारे उपर थोपा गया यूरोपियन सभ्यताओं के साम्राज्यवादी संविधान की नकल का संविधान और साम्राज्यवादी प्रवृति का प्रशासनिक ढ़ाचा बदल सकते हैं क्योकि हमारे पास मत का अधिकार है । संसद में पूर्ण सहमति से हम यह प्रस्ताव पारित क्यों नहीं करवा सकते ? हम ऐसा अवश्य कर सकते हैं । लेकिन पूर्ण सहमति तभी बन सकती है जब संसद निर्दलीय हो,और अहंकार का स्तर स्वान प्रजाति जैसा तुच्छ और परस्पर टकराने वाली प्रवृति जैसा नहीं हो । 

21-12-2012 से इस भौतिक विकास को झटके लगेंगे !


        नष्ट होने वाली दुनिया से तात्पर्य यदि पृथ्वी या धरती से है,तब तो यह एक मूर्खतापूर्ण अवधारणा या कल्पना है!
        दुनिया से तात्पर्य जगत (जीवजगत) से है तो यह जिज्ञासा का एक बिंदु है कि दुनिया का कालचक्र क्या है!
        लम्बे कालचक्र को जानने से पूर्व यह जानना चाहिए कि माया सभ्यता के कैलेंडर की गणना का आधार क्या है और माया सभ्यता का ख़ुद का इतिहास क्या है, जो समाप्त हो गयी फिर भी दुनिया के फिर से समाप्त होने की भविष्यवाणी बता गयी! 
 उस भूतकाल का अध्ययन,जो वर्तमान से तुलना करने जैसा भी होता है और भविष्य भी होता है,तीन विधियों से होता है।

1. धार्मिक मान्यताओं एवं पौराणिक साहित्य से

2. श्रुति परम्परा से अर्थात पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाई जाने वाली कथाओं, क़िस्से-कहानियों एवं लिखित ऐतिहासिक साहित्य के माध्यम से ।

3. विज्ञानसम्मत, तर्कसंगत अनुमानों के माध्यम से । 

भूतकाल के अध्ययन के पीछे तीन मानसिक कारक (फ़ैक्टर) मन्तव्य होते हैं। 

1. अपने पूर्वजों की खोज करने और उन पर गर्व करने की मानसिकता के चलते यह मानसिकता भौतिकवादी तमोगुणी समाज में होती है । 

2. सत्य को जानने के परिप्रेक्ष्य में जब हम पूर्व के इतिहास का और घटित घटनाओं का अध्ययन करते हैं तो यह मानसिकता दार्शनिक स्वभाव के चलते बनती है । 

3. वर्त्तमान की समस्याओं के पीछे छिपे कारणों को खोजने के परिप्रेक्ष्य में ताकि उन घटनाओं से सबक लिया जा सके और सुन्दर भविष्य का निर्माण किया जा सके । यह समाज वैज्ञानिक की जिज्ञासा सामयिक यथार्थ जानने के लिये होती  है । 

  इस ब्लॉग श्रृंखला में भूतकाल का अध्ययन तो तीनों विधियों से किया ही जायेगा लेकिन इस निर्दलीय राजनैतिक मंच नामक ब्लॉग में अध्ययन का मन्तव्य एक सुन्दर सामाजिक ढाँचे की रचना करने के परिप्रेक्ष्य में समझें। ताकि आत्म अनुशासित रह कर नैतिकता के आधार वाली नीति पर चलने वाले समाज की रचना कर सकें।  इसके लिए हमें इतिहास को एक विशेष दृष्टिकोण से समझना है ताकि हम पूर्व की उन घटनाओं से सबक लें जिन घटनाओं के परिणामस्वरूप हम इस बुरे हालात में पहुँचे हैं। और यह भी जानें कि उन घटनाओं से पहले विश्व कैसा था और बाद में कैसा बना। ताकि हम वर्तमान में ऐसा कार्यक्रम बना सकें जो हमें सन्तुलित समाज व्यवस्था बनाने के लिए एक अवधारणा(दृष्टिकोण) दे सके। 
काल-चक्र  का अध्ययन हम तीन बिन्दुओं को केन्द्र में रख कर करते हैं। देवर्षि नारद के तीन ब्लॉग इसी परिप्रेक्ष्य में हैं।