When the British Government was preparing to transfer powers, the legendary of the movement, BAPU had said two things. 1. This is not freedom it's just transfer of rulling (but that will be powerless), so we have to fight a war of independence NOW. 2. Now the Congress (House) was to end, we have to restore the Democratic approach,admittedly. We probably did not understand his planning or probably understood it,so he was killed or executed. We have sufferred a lot. Now it's time to make the Indian politics free from parties.



(1.) निःसंदेह आपने यह तो सुन रखा होगा कि पंचायती राज व्यवस्था सदा से ही भारतीय गणतंत्र की प्रमुख विशेषता रही है। इस व्यवस्था की गरिमा/गहराई इस तथ्य पर टिकी थी कि 1. पंचों-सरपंचों के चुनाव सर्व सम्मति से होते थे। 2. अनेक दल /पार्टियाँ नहीं होती थीं। इसी सूत्र / फ़ॉर्मूला से अपने क्षेत्र का स्थाई निर्दलीय जनप्रतिनिधि चुनाव में खड़ा करके उसे सांसद और विधायक चुनें।

(1.) No doubt you've heard that Panchayati Raj is always key feature of the Indian Republic. The dignity of the system / depth based on the fact that 1. the election of jury - sarpanchs were held unanimously. 2. there were not Many parties. Elect the MPs and MLAs of your area by fixing independent public representatives to fight elections by the same Formula.

(2.) भारत में स्वायंभू अधिनायक को सम्मानित दृष्टि से देखा जाता है जबकि इसका ग्रीक अनुवाद डिक्टेटर प्रचलन में है, जो बदनाम शब्द है। स्वायंभू अधिनायक यानी किसी एक व्यक्ति के ही ब्रह्म/ब्रेन/दिमाग़/द्रष्टिकोण का नेतृत्व हो। स्वायंभू तीन वर्गों में वर्गीकृत कहे गए हैं-1.ब्रह्म परम्परा में ब्राह्मण 2.वैष्णव में संत 3.शैव में शम्भू। भारतीय जनमानस एक तरफ़ तो केन्द्रीय सत्ता में एक ही ज़िम्मेदार-जवाबदार स्वायमभू चाहता है ताकि उस से जबाब मांग सके तो दूसरी तरफ सत्ता का इतना अधिक विकेन्द्रीयकरण चाहता है कि जहाँ भी पाँच यार मिल गए स्व का तन्त्र बनाने की पंचायती स्वतंत्रता होनी चाहिए.

(2.) In India Swaymbhu esteemed leader is considered honerable while the Greek translation of this word dictator is infamous in circulation. Swaymbhu esteemed leader means the leadership of a single mastermind having divine brain. Swayambhu is classified into three different words of three traditional language's categories -1.BRAHMAN in Brahmin tradition 2.SAINT in Vaishnava 3.SHAMBHU in Shaiv tradition. The public wish a single person to be responsible in central government so that he can be asked for his duties. On the other hand, wish so much decentralization of power to find the five-man should have freedom to make the Panchayat.

(3.) भारतीय परिवार करोड़ों का दान दे सकते हैं लेकिन आयकर से बचने का हर संभव उपाय ढूँढते हैं. पूजापाठ में समर्पित हो सकते हैं लेकिन संविधान के नियमों में छेद करना बौद्धिक कुशलता मानी जाती है. क्योंकि अवचेतन में एक अवधारणा होती है कि संविधान तो मानव निर्मित होता है. अतः भारतीयों के लिए अनुबंध वाली वैदिक-व्यवस्था-प्रणालियाँ नहीं बल्कि आत्म-अनुशासन वाली ब्रह्मणी-व्यवस्था-पद्धतियाँ अनुकूल रहती हैं. उन्हीं को पुनर्स्थापित करना चाहिए.

(3.) Indian families can give donations of millions, but they search for every possible way to avoid income tax. They can be dedicated to worship but making hole in the rules of the costitution is considerd intellectual skills. Because their subconscious has a concept that the constitution is just man-made. So instead of the contract basis vedic system, the brahmin system is favorable for the Indians.

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।


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मंगलवार, 17 जुलाई 2012

शास्त्र = धर्म + विज्ञान !

         संस्कृत सभी भाषाओं के उच्चारणों को संग्रहित करके फिर संस्कारित करके विकसित की गई वैज्ञानिक-धार्मिक भाषा है। संस्कृत के अपभ्रंश उच्चारण से लेटिन शब्दकोश विकसित हुआ जो ईसाईयों की धार्मिक-वैज्ञानिक भाषा है।
धर्म और विज्ञान ठीक उसी तरह के दो पक्ष हैं जैसे कि ज्ञानेन्द्रियाँ एवं कर्मेन्द्रियाँ,सर एवं धड़,चित्त  एवं पुट,दांया पंख-बाँया पंख,महिला एवं पुरूष इत्यादि अर्थात् एक दूसरे के पूरक,परस्पर निर्भर, समानान्तरण बिछी दो पटरियों की तरह। इस चैप्टर के माध्यम से यह प्रमाणित करना कि धर्म एवं विज्ञान जो कि अभिन्न है इसे भिन्न समझने वाले या तो धूर्त हैं जो अपनी स्वार्थ पूर्ति हेतु ऐसा प्रचारित प्रसारित करते हैं या फिर मूर्ख हैं जो धूर्तों के चंगुल में फँसे हैं।
    लेकिन यदि आप यह स्वीकार करने की समझ रखते हैं कि धर्म को एक वाणिज्य-व्यापार का रूप देने के लिए यक्षों ने जबसे इसका उपयोग अहिंसा के नाम पर ढाल के रूप में किया और हिंसा के रूप में घृणा फैलाने के लिए किया और राक्षसों ने इसका उपयोग आतंकी-हिंसा फैलाने के लिए किया और अहिंसा के नाम पर अपने विरोधियों को अंकुश में करने के लिए किया तब से धर्म नामक चिड़िया विलुप्त प्राणियों के चिड़ियाघर की रौनक बन कर रह गयी है तो आप न तो धर्म और विज्ञान को अलग मानने वाले धूर्त वर्ग में हैं और न ही मूर्ख वर्ग में हैं। 
संस्कृत की एक तरफ तो यह विषेषता है कि इसमें अथाह ज्ञान कोश रचा गया और सभी भाषाओं के असंख्य शब्द संस्कृत के अपभ्रंश उच्चारणों से विकसित हुए तो दूसरी तरफ संस्कृत का मूल शब्दकोश सिर्फ चार सौ-पाँच सौ शब्दों का है। 
वर्तमान में एक तरफ़ अंग्रेजी है, दूसरी तरफ हिन्दी। एक तरफ लेटिन व ग्रीक के शब्द-कोशों से अंग्रेज़ी विकसित हुई है और छा गई है। दूसरी तरफ संस्कृत और संस्कृत-शब्दकोष वाली हिन्दी अपने उच्चारण की कठिनाई के कारण लगातार हाशिये पर सिमटती जा रही है। इस चैप्टर में इस बात का प्रयास किया जायेगा कि संस्कृत्यजन्य हिन्दी को ऐसा दर्ज़ा दिया जाये जैसा कभी संस्कृत का था अर्थात् कुलीन,सभ्य,संस्कारित उच्च बौद्धिक वर्ग की भाषा का दर्ज़ा दिया जाये और किसी भी राजनैतिक पद एवं उच्च सरकारी पद पर नियुक्ति उसी को दी जाये जो संस्कृतजन्य हिन्दी जानता हो ताकि वह संस्कृत ज्ञानकोष से जुड़ने के साथ ही इतिहास से भी जुड़ जाये और पूरे भारत से भी जुड़ जाये और मूल ज्ञान-विज्ञान से भी जुड़ जाये और अपने आप से भी जुड़ा रहे। 
संस्कृत का शास्त्र शब्द जब लेटिन अमेरिका पहुँचा तो वैज्ञानिक साहित्य के साथ और जब ग्रीक पहुँचा तो दार्शनिक साहित्य के साथ पहुँचा था। अतः लेटिन में यह साईंस उच्चारित हुआ और ग्रीक में सेन्स अर्थात् शास्त्र। अतः शास्त्र ऐसा लिखित साहित्य है जो सेन्स (धर्म) और साईन्स (विज्ञान) दोनों को समानान्तरण रख कर बताता है। 

विश्व में भाषाओं की दो धारायें हैं !

विश्व  में भाषाओं की दो धारायें हैं। 
    एक है साहित्य,बोलचाल,भावों के आदान-प्रदान की भाषा। यह शैली प्राकृत परम्परा की भाषा शैली से प्रारम्भ होकर अन्ततः ब्रह्म परम्परा की भाषा तक पहुँच कर यह अपने विकास की अन्तिम पराकाष्ठा तक पहुँचती है। इस भाषा में शब्दों के भावों का महत्व होता है। इस वर्ग में पशु-पक्षियों की भाषा से लेकर शरीर की गतिविधि तक यानी Body Language तक आ जाती है। जिसका उद्देश्य होता है भावाभिव्यक्ति (भाव अभिव्यक्ति)। इस वर्ग की भाषा का विकास जब अन्तिम स्तर तक पहूंचता है तो सिर्फ़ शब्द ब्रह्म का उपयोग होता है, व्याकरण गौण हो जाती है। अतः शब्द भण्डार विशाल होता है। 
दूसरा वर्ग है धर्म एवं विज्ञान की शब्दावली की भाषा। जिसे वेद परम्परा की भाषा कहा जाता है। इस भाषा के शब्दकोष के मूल में कुछ गिनती के धातु रूप होते हैं उन्हीं से वैज्ञानिक नियमों के अनुसार शब्दों की रचना होती है। इस वैज्ञानिक शब्दावली अर्थात् धर्म एवं विज्ञान की शब्दावली में प्रत्येक शब्द के तीन स्तर पर अनेक अर्थ बनते हैं। 
1. शब्दार्थ:- महेश्वर सूत्र के अनुसार प्रत्येक शब्द का एक ही सुनिश्चित शब्दार्थ होता है, अनेक पर्यायवाची या पूरक शब्द नहीं होते हैं। धार्मिक प्रवचकों और वैज्ञानिकों के के लिए शब्द का शब्दार्थ जानना आवश्यक होता        है। 
2. तत्वार्थ (तात्पर्य):- प्रत्येक वैदिक शब्द के तीन तात्पर्य होते हैं। 
1. आध्यात्मिक - मनोवैज्ञानिक यानी मानव के स्वभाव को परिलक्षित करने वाले तात्पर्य। 
2. आधिदैविक-जीव के शरीर के परिप्रेक्ष्य में शरीर विज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले तात्पर्य। 
3. आधिभौतिक - भौतिक देह और उससे जुड़े भौतिक जगत यानी समाज विज्ञान से जुड़े तात्पर्य। 
3. भावार्थ:- भावार्थ को अभिप्राय भी कहते हैं। किसी शब्द के भावार्थों की कोई सुनिश्चित संख्या नहीं होती । जितने दिमाग़ उतने भावार्थ । 
इस तरह धातु रूपों से बने वैदिक संस्कृत शब्दकोष के मूल शब्द तो मुश्किल से चार-पाँच सौ ही होंगे लेकिन इनके एक-एक सुनिश्चित शब्दार्थ और तीन-तीन सुनिश्चित तत्वार्थ और अनगिनत अनिश्चित भावार्थ होते हैं। 
ब्राह्मणी भाषा एवं प्राकृत भाषाओं को संस्कारित करके विकसित की गई, भाषा विज्ञान के नियमों (सूत्रों) में बँधी भाषा है ‘‘संस्कृत‘‘। लेकिन जब शब्द का उच्चारण नियमानुसार नहीं होता तो वह शब्द अपभ्रंश कहलाता है। 
इस तरह शब्द की चार श्रेणियाँ हो गईं। (1) ब्राह्मणी भाषा के शब्द (2) प्राकृत भाषाओं के शब्द (3) इनसे विकसित हुई धर्म एवं विज्ञान की भाषा संस्कृत के शब्द (4) ज्ञान-विज्ञान के विस्तार का माध्यम बन कर जब ये शब्द विश्व  में फैले तो उच्चारण दोष के कारण विकसित हुए अनेक अपभ्रंश शब्द । 
    इसी तरह जानने की दो धारायें समानान्तर चलती हैं एक धारा को ब्रह्म परम्परा एवं दूसरी धारा को वेद परम्परा कहा गया है। ब्रह्म से ब्रेन शब्द बना और वेद से बॉडी शब्द बना है। इसी तरह शास्त्र से सेन्स और साईन्स दो शब्द बने हैं। तात्पर्य है कि सेन्स और साईन्स की दोनों परम्पराओं को ही ज्ञान एवं विज्ञान की परम्परायें कहा गया है। इन्हीं को धर्म और विज्ञान कहा गया है।
  शब्दों के शब्दार्थ, तत्वार्थ और भावार्थ को क्रमशः  शब्द-विज्ञान, धर्म एवं विज्ञान तथा साहित्य की शब्दावली भी कह सकते हैं। 
    लेकिन इस नियमों में बँधे शब्दों से अलग एक अर्थ होता है जिसे मन्तव्य कहते हैं। ब्राह्मण परम्परा कहती है कि भावना को अभिव्यक्त करने के परिप्रेक्ष्य में शब्दार्थ, तत्वार्थ और भावार्थ तीनों स्तर के अर्थ गौण होते हैं। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कहने वाले का मन्तव्य क्या है! इसको जानना ही पर्याप्त होता है बाक़ी सब शब्दों का आडम्बर है। जबकि वेद परम्परा कहती है कि शब्दों के सही-सही अर्थ जाने बिना यथा-अर्थ (यथार्थ) को समझने में चूक हो सकती है और व्यक्ति ज्ञान के स्थान पर भ्रामक अवधारणाओं में चला जाता है। 
दोनों परम्पराएँ अपने अपने पक्ष में सही है इनमे विरोधाभास नहीं है बल्कि दोनों मिलकर पूर्णता देती हैं।

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

शब्द-ब्रह्म का एक आयाम है महसूस करना ।

        वर्तमान में धार्मिक साहित्य के संस्कृत आधारित हिन्दी शब्दों के साथ यही दुखान्तिका हो रही है । एक दुखान्तिका (disaster) तो जानने के परिप्रेक्ष्य में है कि हम विश्वकी पहली वैज्ञानिक-धार्मिक भाषा संस्कृत के शब्दों को इस तरह से उपयोग कर रहे है जैसे कि बहुत सारे जीवाश्मों को जोड़ने के समय किसी का धड़ किसी के पैर, किसी की पूँछ और किसी का मुँह जोड़कर एक कपोल-कल्पित आकार बना कर फिर उस भूतकाल के भूत-प्राणी की काल्पनिक गुण-धर्मिता को बलपूर्वक स्थापित कर लेते हैं ।
शब्द-ब्रह्म का दूसरा आयाम है महसूस करना।शब्द कान में पड़ते हैं तब ब्रह्म यानी चेतना चैतन्य हो जाती है और रक्त-परिवहन और मांसपेशी तंत्र आवेशित हो जाता है। 
   इसका उदाहरण एक संस्मरण में है जो किसी पत्रकार ने लिखा था। एक ब्रिटिश भाषा विद्वान भारत में ही स्थाई रूप से रहने लगे थे और उन्होंने एक अंग्रेज़ी-हिन्दी शब्द कोष भी बनाया था। शायद उनका नाम फादर कामिल बुल्के था। वे कभी-कभी धोती भी पहनते थे और साफा भी बाँधते थे। एक दिन उन्होंने कहा आप लोगों को अंग्रेज़ी के स्थान पर अपनी मातृ-भाषा हिन्दी का उपयोग करना चाहिये। आप भारतीय लोग अंग्रेज़ी बहुत अच्छी जानते और बोलते हो। अंग्रेज़ी का इतना सुस्पष्ट उच्चारण तो अंग्रेज़ भी नहीं कर पाते, लेकिन जानना एक पहलू है, महसूस करना दूसरा पहलू। 
जब उनको अपनी बात और अधिक स्पष्ट करने के लिये कहा गया तो उन्होंने कहा ‘‘मैं अग्रिम क्षमा माँग कर आपसे कुछ गाली-गलौच करूँ तो आप नाराज़ मत होना।पहले मैं अंग्रेज़ी में गालियाँ निकालता हूँ।
तत्पश्चात् उन्होंने हमारे मुंह के सामने देख कर कहा:- 'यू नॉनसेंस, ब्लडी, ईडियट, स्टूपिड'  अब मैं आप को हिन्दी में निकालता हूँ: 'तू कुत्ता,कमीना,हराम-खोर, हरामी कहीं का, बेवकूफ़, मूर्ख।'
अब देखिये जब मैने अंग्रेजी में गालियाँ निकालीं तो आप के चेहरों पर तनाव नहीं बल्कि हास्य था लेकिन ज्योंही मैने हिन्दी में गालियाँ निकालीं आप के चेहरों पर एक आवेश दिखाई दिया, क्यों ? क्योंकि आप अंग्रेज़ी में काम में आने वाले अपशब्दों को सिर्फ़ जानते हैं जबकि हिन्दी शब्दों को आपने महसूस किया अतः आप ने ऐसा माना जैसे कि मैं सचमुच गालियाँ निकाल रहा हूँ ।
इस तरह संवेदनशीलता के दो पक्ष हैं। एक वह संवेदनशीलता जो ब्रह्म को हँसने अथवा क्रोधित होने के लिए आवेशित करती है और दूसरी वह संवेदनशीलता जो शब्द को सुनते ही ब्रह्म के क्षेत्र (मस्तिक के चुम्बकीय क्षेत्र) में एक डिज़ाइन बना कर व्यक्ति को दार्शनिक बनाती है और सत्य को जानने एवं महसूस करने की संवेदना भरती है । 
इस तरह जब हम किसी धार्मिक-वैज्ञानिक विषय का अध्ययन करते हैं तो हमें शब्द के अर्थ को शब्दार्थ, तत्वार्थ और भावार्थ तीनों अर्थों से समझना चाहिये । लेकिन जब हम रोचक शैली में साहित्य को पढ़ते हैं तब हम शब्द के भावार्थ को ही समझते हैं । इसी तरह जब हम किसी ऐसे व्यक्ति से बात करते हैं जो अपनी बात को मान्यता प्राप्त शब्दों में नहीं कह पा रहा है तो हमें उसके मन्तव्य को समझना चाहिये कि वह कहना क्या चाहता है ?
शब्द के यथा-अर्थ को जाने बिना हम समसामयिक यथार्थ से दूर चले जाते हैं । उदाहरण के लिए शब्द ब्रह्म नामक संयुक्त शब्द के सही-सही अर्थ को नहीं जानने का परिणाम ही है कि आपने शब्द-ब्रह्म के परिप्रेक्ष्य में अनेक भ्रामक अवधारणाऐं पढ़ी सुनी होंगी।
इस ब्लॉग में इस बिन्दु को लेकर यह अनुभाग लिखा जा रहा है।जो विद्वान और जिज्ञासु संस्कृतजन्य हिन्दी का प्रचार प्रसार करने में तथा संस्कृत के धार्मिक वैज्ञानिक शब्द को लेटिन के धार्मिक-वैज्ञानिक शब्दों से भी अधिक महत्वपूर्ण और अधिक ऊँचे स्तर पर स्थापित करने में सहयोग करने के इच्छुक हों तो चार तरीक़ों से सहयोग कर सकते हैं 
(1)  नैतिक समर्थन देकर इसे प्रचारित-प्रसारित करके।
(2)  इन शब्दों का अपनी भाषा शैली में सहजता से उपयोग करके 
(3)  आर्थिक सहयोग के रूप में अपने उत्पादन अथवा अपने नाम का विज्ञापन देकर।
(4)  क्षेत्रीय भाषाओँ में अनुवाद करके।यह चौथा सहयोग सर्वाधिक महत्त्व पूर्ण सहयोग होगा।


शब्द ब्रह्मध्वनि तरंगों एवं विद्युत चुम्बकीय तरंगों का संयुक्त उपक्रम ।

शब्द ब्रह्म
शब्द ही हमारे ब्रह्म (ब्रेन) में हलचल पैदा करते हैं। शब्द के अर्थ ही हमारे अध्ययन-अध्यापन, चिंतन-मनन के माध्यम होते हैं। अतःशब्द का यथा अर्थ (यथार्थ) जानना कल्याणकारी होता है। 
शब्द:- मुँह से निकलने वाली ध्वनी तरंगें। 
ब्रह्म:- ब्रेन से उत्सर्जित होने वाली चुम्बकीय तरगें।
शब्द:- मनुष्य के गले के अन्दर की मांसपेशियों के टकराने से ध्वनि पैदा होती है। वह ध्वनि जब निर्धारित वैज्ञानिक मापदण्ड से उच्चारित होती है तो जो उच्चारण होता है उसका नाम शब्द है।
ब्रह्म [संस्कृत शब्द] -यानि ब्रेन Brain [लेटिन शब्द] में पैदा होने वाली वे विद्युत चुम्बकीय तरंगे हैं जिन्हें भौतिक-विज्ञान की भाषा में चुम्बकीय बल रेखाओं वाला क्षेत्र कहा गया है और अध्यात्म-विज्ञान में  ब्रह्म-बल  कहा गया है। 
  शब्द-ब्रह्म:- जब शब्द सुनाई देता है तो ब्रेन में एक रासायनिक क्रिया होती है । उस रासायनिक क्रिया के माध्यम से हमारे ब्रेन नामक कम्प्यूटर में एक डिज़ाइन बनती है । डिज़ाइन शब्द संस्कृत के दर्शन शब्द का ही अपभ्रंश उच्चारण है । दर्शन को ग्रीक में फ़िलोसोफ़ी कहेंगे । ब्रह्म परम्परा में दर्शन करने का एक तात्पर्य देखना भी होता है । हम जिसे देखते हैं वह भी एक डिज़ाइन होती है और एक दार्शनिक जब किसी तथ्य पर चिन्तन करता है, विचार करता है, सोचता है तब भी उसके मस्तिष्क में एक डिज़ाइन बनती है । 
जब भी कोई डिज़ाइन बनती है तो उसके लिए पेपर,पृष्ठ-भूमि, आधार इत्यादि की आवश्यकता होती है । मस्तिष्क (Mind) में बनने वाली डिज़ाईन का आधार विद्युत चुम्बकीय तरंगें होती हैं या कहें विद्युत-चुम्बकीय तरंगों को आधार या माध्यम बना कर एक दार्शनिक तथ्यों पर आधारित सत्य का डिज़ाइन रूप में दर्शन कर लेता है । 
इसी डिज़ाइन को हम जब व्यक्त या अभिव्यक्त करते हैं तो पुनः शब्द की रचना होती है।यह सनातन धर्म चक्र है,जिसे सुदर्शन चक्र भी कहा गया है । 
इलेक्ट्रोनिक संचार माध्यमों में भी यही प्रक्रिया चलती है । ध्वनि एवं प्रकाश तरंगें, विद्युत-चुम्बकीय तरंगों में बदलती हैं और वे अपने गन्तव्य तक पहुँचकर पुनः ध्वनि एवं प्रकाश तरंगों  में बदल जाती हैं, यही प्रक्रिया प्रकृति निर्मित यंत्र (शरीर) के कम्प्यूटर (ब्रेन) में चलती है। 
शब्द ब्रह्म (संयुक्त शब्द) का तात्पर्य होता है ध्वनि तरंगों एवं विद्युत चुम्बकीय तरंगों का सम़-युक्त, संयुक्त उपक्रम । 
शिशु के गर्भ के बाहर निकलते ही वैद्य का दो बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित होता है ।
शिशु रोता है अथवा नहीं अर्थात् उसके शरीर रूपी यंत्र में ध्वनि पैदा करने वाली मांसपेशियाँ स्वस्थ तो हैं।
ध्वनि के प्रति शिशु आकर्षित होता है या नहीं । दोनों को मिलाकर वैज्ञानिक शब्दावली में कहा जायेगा ‘‘शिशु शब्द-ब्रह्म के प्रति संवेदनशील होना चाहिये ।‘‘
यही शिशु बड़ा होकर ज्ञानी-विद्वान-बुद्धिमान होना चाहता है तो उसके लिये भी यही मापदण्ड होता है कि वह  शब्द-ब्रह्म के प्रति कितना संवेदनशील है । तब उसकी गुणवत्ता इस दृष्टिकोण से जानी जाती है कि वह शब्दों के अर्थों को कितना समझता है । 
जब एक व्यक्ति भाषा का विद्वान बन कर व्याकरण तथा रोचक भाषा शैली को अतिरिक्त महत्व देता है लेकिन शब्द का यथा-अर्थ (यथार्थ) नहीं जानता है और शब्द को अन्य-अर्थ,अन्यार्थ, Otherwise Meaning में यानी मनगढ़न्त भावार्थ में लेने लग जाता है तो समझना चाहिये कि अब लेखन और श्रुति परम्परा में अज्ञान को विस्तार होने जा रहा है और यह अज्ञान धीरे-धीरे ज्ञान को आवृत्त कर देगा,ढक देगा ।वर्तमान में धार्मिक साहित्य के संस्कृत आधारित हिन्दी शब्दों के साथ यही दुखान्तिका हो रही है । एक दुखान्तिका (disaster) तो जानने के परिप्रेक्ष्य में है कि हम विश्व की पहली वैज्ञानिक-धार्मिक भाषा संस्कृत के शब्दों को इस तरह से उपयोग में ले रहे है जैसे कि बहुत सारे जीवाश्मों को जोड़ने के समय किसी का धड़ किसी के पैर, किसी की पूँछ और किसी का मुँह जोड़कर एक कपोल-कल्पित आकार बना कर फिर उस भूतकाल के भूत-प्राणी की काल्पनिक गुण-धर्मिता को बलपूर्वक स्थापित कर लेते हैं ।

शनिवार, 26 मई 2012

सर्व कल्याणकारी व्यवस्था पद्धतियाँ और प्रणालियाँ



 कल्याणकारी =  श्रेष्ट + इष्ट. 
   श्रेष्ट =                  प्रिय + उचित.
   इष्ट =                   इच्छित,अपेक्षित + हितकारी.     
                अर्थात जो सभी वर्गों को प्रिय लगे,सभी अपनी प्रिय स्थिति, प्रिय वस्तु , प्रिय जॉब चुन सके , प्रिय लगे उस विषय  की शिक्षा ले सके, प्रिय लगे वैसा मनोरंजन कर सके, प्रिय क्रीड़ाएँ कर सके, प्रिय को जीवन साथी चुन सके ऐसी व्यवस्था पद्धतियाँ होनी चाहिए. लेकिन उस के साथ-साथ इस बात का भी ध्यान रखा जाये कि वे अनुचित नहीं,उचित होनी चाहिए. मैं एक ऐसी ही व्यवस्था पद्धति स्थापित करना चाहता हूँ.  लेकिन यह तभी संभव होगा जब सर्वसम्मति होगी. सर्वसम्मति तब होगी जब संसद में सभी अपने-अपने दिमाग़ से सोचने के लिए स्वतंत्र होंगे,किसी एक हाईकमान तानाशाह के अन्धानुयाई नहीं हों. क्योंकि किसी एक वर्ग के लिए जो उचित हो, हो सकता है कि वह अन्य वर्ग को उचित न लगे. वे उस व्यवस्था को अपने वर्ग पर लागू न भी होनें दें. कुछ व्यवस्थाएं ऐसी भी हो सकती हैं जो किसी वर्ग को प्रिय तो लगें लेकिन उस वर्ग के लिए उचित न हों।उस  स्थिति में मेरा धर्म बनता है कि मैं प्रत्येक सांसद को संतोषजनक, तर्कसंगत  और वैज्ञानिक कारण बता सकूँ, यह तभी सम्भव होगा जब प्रत्येक सांसद दो योग्यतायें रखे.
1.वह ख़ुद अपने दिमाग से सोचने के योग्य हो, सोचने का काम हाईकमान अथवा दल पर न छोड़े. 
2.वो अपने क्षेत्र की जनता का प्रिय हो और स्थाई प्रतिनिधित्व कर सकता हो अर्थात निर्दलीय हो, दल-दल में धँसा दलीय प्रतिनिधि नहीं हो;    जनता का नेता,जनता का प्रतिनिधि हो,मात्र अपने हाई कमान का समर्थक बन कर रहने वाला नहीं हो.         
               मैं एक ऐसी लोक प्रशासन प्रणाली स्थापित करवा सकता हूँ जिस में सभी अपनी-अपनी इच्छानुसार जीवनशैली और दैनिकचर्या का चुनाव कर सकेंगे, इच्छानुसार जॉब/रोज़गार चुन सकेंगे फिर भी वे इच्छाएं उनके हित में होंगी. उनका भी और दूसरों का भी अहित नहीं होना चाहिए इस बिंदु पर भी सावधानी रखी जा सके. ऐसी प्रणाली साथ में हो. इस तरह यह एक जटिल प्रणाली होगी जो सभी वर्गों तथा व्यक्तियों को प्रिय के साथ-साथ उचित तथा इच्छित के साथ-साथ हितकारी भी लगे. चार चीज़ों का योग तब  कल्याणकारी फिर विविध प्रकार के वर्गों के लिए अलग-अलग कल्याणकारी स्थिति, उसमें फिर यह गारंटी कि जब तक एक-एक सांसद सहमत नहीं हो जाए, सर्व सम्मति नहीं हो जाए, योजना लागू भी नहीं होगी. ऐसी स्थिति में प्रत्येक सांसद में स्वविवेक से सोचने की योग्यता होनी ज़रूरी है। 
               हाँ ! आप कल्याणकारी शब्द की परिधि में आने वाले चारों शब्दों से अनभिज्ञ  रह कर तो कैसी भी योजना बना सकते हैं लेकिन सही मायने में कल्याणकारी व्यवस्था तभी बना सकते हैं जब सभी सांसद स्वविवेक से स्व के अधीन होकर स्वीकार करने के लिए स्वतंत्र हों. जिस राष्ट्र में संसद और सांसद ही स्वतंत्र नहीं हैं वहाँ सत्ता परिवर्तन कितना ही हो जाए, स्वतंत्रता की कल्पना नहीं की जा सकती है.




       

मंगलवार, 1 मई 2012

एक से दस तक की पोस्ट एक साथ


  1 शब्द ब्रह्म 


     ब्रह्म संस्कृत शब्द है. जिसका लेटिन रूपान्तर ब्रेन Brain है. शब्द जब आपकी श्रवण ज्ञानेंद्री से ब्रेन में पहुँचता है तो आपके ब्रेन का सत्व उसे स्मृति के रूप में ग्रहण कर के संग्रह कर लेता है जिसे आपजानकारियाँ कहते हैं.                                                                                                                                            जब आप का ब्रह्म रज के प्रभाव में होता है तो आप आवेशित होकर सक्रिय हो जाते हैं.
तम के प्रभाव से आप भ्रमित हो जाते हैं .
       शब्द ही है जो आप के ब्रह्म(चेतना) को प्रभावित करता है ."मैं ब्रह्म हूँ" अर्थात ब्रह्म एकवचन होता है क्योंकि यह सबका अपना-अपना विशिष्ठ होता है.
      जब सभी का ब्रह्म सम हो कर "हम" का रूप ले लेता है तो समाज बन जाता है.
       तब परस्पर सम्वाद के माध्यम से शब्द ही सब के ब्रह्म को आपस में जोड़ता है.
       मैं नारदीय परम्परा यानी स्वतंत्र सामाजिक पत्रकारिता परम्परा का वाहक हूँ. आप सामाजिक प्राणी हैं अतः आप की नीयत समाज में रहने की होने से आपकी नियति है कि आप को समाज में रहना है.
       लेकिन जब आपके ब्रह्म आपस में मिलते भी नहीं है और संवाद भी नहीं होता तो विषमता आ जाती है. इससें भी बुरी स्थिति तब बनती है जब संवाद तो होता है लेकिन अप्रिय शब्दों  के साथ होता है. तब आपस में मैं-मैं, हम-हम और हम-तुम होने लग जाता है.
      इन विषमताओं को बढ़ाने और कम करने-कराने में आपका ब्रह्म और आपके शब्द ही मूल कारण होते हैं.
विषमताओं में भी सम रहने का एक मात्र तरीक़ा है ब्रह्म को समझना. लेकिन जब या तो आप शब्द का अर्थ जानते हूए भी उसका उपयोग ही विषमता फैलाने के लिए करते हैं या फिर आप शब्द का अर्थ नहीं जान कर भी या शब्द का ग़लत/खोटा अर्थ जान कर भी उसे सही अर्थ समझने लग जाते हैं. तब भी विषमता फैलती है .
         आज का सम आज का समाज है लेकिन आज के वर्तमान में भी हम पूर्व में स्थापित मान्यताओं पर  चलते हैं तो हमें मान्यता प्राप्त शब्दों का अर्थ तो पता होना ही चाहिए.
       अतः अपन आपस की सामाजिक बातें शुरू करने से पहले शब्द-ब्रह्म को अच्छी तरह समझने से शुरू करें.       इसी तरह आपके मुख से निकले हुए शब्द ही आपके ब्रह्म को व्यक्त करते हैं. अव्यक्त ब्रह्म आपके मन-बुद्धि -अहंकार के रूप में व्यक्त होता है. आप को चाहिए कि आप अपने आप को जानने के लिए अपने मन-बुद्धि-अहंकार को समझने का प्रयास करें. लेकिन होता क्या है कि आप अपने आप को जानें इससे पहले ही लोग आपको जान जाते हैं कि आप किस खेत की मूली हैं. क्योंकि आपके मुख से निकले शब्द आपके मन-बुद्धि-अहंकार को दूसरों के सामने अभिव्यक्त कर देते हैं.
         आज आपके भारत की राजनीति में जो लोग हैं उनमे अधिकाँश लोग यह सोचते हैं कि वे विपक्षी दल की पोल खोल रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि वो जिस तरह की भाषा का उपयोग करते है उससे उनके ब्रह्म / ब्रेन की पोल खुलती है.
         आप जब अपने व्यक्तित्व का विकास करने के लिए उत्साहित रहते है तो दूसरों के गुणों को अपने व्यक्तित्व में जोड़ने की चेष्टा करते हैं. इस तरह पहले से ही विद्यमान आपके अपने गुणों में कुछ और गुणों का योग हो जाता है और आपकी योग्यता में वृद्धि हो जाती है.
                  लेकिन जब आप इस योग्य नहीं होते हैं कि अपनी योग्यता में कुछ और गुणों का योग कर सकें तो आप अपने आपको प्रतिपक्षी से अधिक योग्य साबित करने के स्थान पर प्रतिपक्षी को अयोग्य साबित करने के लिए उसकी आलोचना कर देते हैं,यहीं से आपकी पोलपट्टी चौड़े आ जाती है.
                आज की राजनीति में यही हो रहा है. चूँकि व्यक्तिगत आलोचना तो कर नहीं सकते अतः प्रतिपक्षी दलों की या दल की आलोचना कर देते हैं. इसी तरह अपनी अयोग्यता को छिपाने के लिए अपने दल की आड़ भी ले लेते है. तो क्यों नहीं आप अपने क्षेत्र में अपना प्रतिनिधि चुनें जो आपका अपना हो, न कि किसी दल का प्रतिनिधि मात्र हो .   
   { विशेष :-गीता में एक शब्द है अक्रोध जिसका अर्थ होता है क्रोध के विपरीत यानी अपने आवेश को हास्य-व्यंग्य, हँसी-मज़ाक,व्यंगात्मक शैली में हँसकर कहना ताकि गंभीर वार्ता के तनाव को बीच-बीच कम किया जा सके. इस मनोवाज्ञानिक तथ्य को मद्देनज़र रख कर नाटकों में, फ़िल्मों में विदूषक के चरित्र भी लिए जाते रहे हैं. नाटकों के विषय में एक तथ्य बताना प्रासंगिक होगा कि नाटक कंपनियों के संचालक जो कि निर्देशक, निवेशक, संवाद लेखक और दर्शकों की नब्ज पकड़ने वाले मनोवैज्ञानिक भी होते थे या हैं, वे अन्य सभी भूमिकाओं के लिए संवाद रटने वाले कलाकार रखते थे लेकिन विदूषक की भूमिका ख़ुद निभाते थे. विदूषक का स्त्रीलिंग शब्द विदुषी होता है जो विद्वान महिला के लिए काम में लिया जाता है जबकि विदूषक शब्द कान में पड़ते ही ........!
           लेकिन सच्चाई यह है कि जो गंभीर बात मज़ाक-मज़ाक में कह दी जाती है तो एक गंभीर,संजीदा व्यक्ति को अधिक प्रभावित करती है। इसी तरह देवासुर संपदा विभाग योग में आसुरी संपदा वाले व्यक्ति की अनेक पहचानों में एक पहचान यह भी है कि वह हमेशा दर्प में रहता है. यहाँ परिपूर्ण परिवर्तन का जो मुद्दा उठाया गया है वह वर्त्तमान समय का गंभीरतम मुद्दा है लेकिन इस लक्ष्य को आनंद में दोलन करते-करते हासिल करना है अतः बीच-बीच में अक्रोध की भाषा में भी कुछ-कुछ होता रहे तो क्या हानि है।}
                                                           एक अक्रोध सुनें               
जब पड़ोस में नया परिवार आकर रुका तो वह बड़ी खुश हुई और पहुँच गई झगडा जड़ वाले शब्द ब्रह्म को  लेकर और नई पड़ोसन से बोली "आ ए डावड़ी(सहेली) लड़ाई करें "
पड़ोसन बोली "लड़े मेरी जूती"
वह बोली "जूती मार अपने खसम के माथे पर" 
पड़ोसन बोली "मैं क्यों मारूं तू मार"
वह बोली "मैं मार दूँगी,बता तेरी जूती कहाँ पड़ी है और तेरा खसम कब आएगा " तो लो साहब शब्द बाण चलने शुरू हो गए और लगे आहत करने एक दूसरे के ब्रह्म को .

2 भाषा के दो पक्ष 


          भाषा के दो पक्ष  होते हैं एक शब्द, दूसरा व्याकरण. आपकी व्याकरण ग़लत होती है तो चल जाता है लेकिन शब्द का ग़लत अर्थ जानने से संवाद और ज्ञान दोनों अकल्याणकारी हो जाते हैं क्योंकि शब्द के अर्थ की ग़लत जानकारी अर्थ का अनर्थ कर देती है इसीलिए जब आप विज्ञान की कक्षा में प्रवेश लेते हैं तो आपका अध्यापक सबसे पहले यही कहता है कि व्याकरण ग़लत चल जाता है लेकिन वैज्ञानिक शब्द का सही अर्थ    जानना ज़रूरी है अतः सबसे पहली शुरुआत यहीं से करें यानी शब्द-कोष में वृद्धि करें.
                      मैं नारद भी अपनी बातों में संस्कृतजन्य हिंदी शब्दों का उपयोग कर रहा हूँ उधर वेदव्यास तो और भी कठिन शब्दों का उपयोग कर रहे हैं  अतः इस ब्लॉग पर एक पंथ दो काज करते हैं. शब्द-कोष का शब्दकोष और आज हमें भारत में निर्दलीय राजनीति क्यों चाहिए इसके तर्क संगत कारण भी.
                                                               एक अक्रोध सुनें 
         जब जाट अंग्रेज़ों की फ़ौज में भर्ती हुआ तो अंग्रेज़ी व्याकरण तो सीख गया लेकिन अंग्रेज़ी शब्दों में कुछ चक्कर रह गया .एक दिन एजुकेशन हवलदार ने आकाश की तरफ संकेत करके पूछा: "व्हाट इज़ दिस " तो जाट बोला "सर, द कबूतर इज़ फ्लाईंग इन द आकाश."  और वह पास कर दिया गया .
         आप यदि कहते हैं : 'कबूतर उड़ता आकाश' ,'कबूतर आकाश में उड़ता', 'कबूतर उड़ती', 'कबूतर उड़ रहे','कबूतर उड़ते' इत्यादि तो इसमें व्याकरण की अशुद्धि तो चल जाती है लेकिन यदि आप कबूतर और आकाश का अर्थ नहीं जानते तो नहीं चलेगा.

 3 ब्रह्म ब्रह्मा ब्राह्मण 


            संस्कृत लम्बे समय तक संस्कारित हो कर विकसित हुई धर्म एवं विज्ञान यानी सेन्स और साइंस की भाषा है. संस्कृत के मूल शब्द (धातु रूप) बमुश्किल चार-पाँच सौ हैं लेकिन शब्द संरचना कुछ ऐसी होती है कि व्याकरण और शब्द की परिभाषा भी साथ में रहती है.
                    उधर लेटिन ईसाई समाज की धर्म एवं विज्ञान की भाषा है.
                   जब भारत से ज्ञान -विज्ञान फैला तो लेटिन अमरीकी देशों चिली एवं पेरू में वैदिक ज्ञान पहुँचा. चूँकि वे भौतिक-विज्ञान में रूचि रखने वाले भौतिकवादी थे अतः जब ब्रह्म का रूपांतरण ब्रेन हुआ तो तात्पर्य तंत्रिका तन्त्र/ नर्व सिस्टम के भौतिक रूप तक सीमित हो कर रह गया .
                 जबकि एक कोशीय जीव से लेकर विशाल वृक्षों में तंत्रिका तन्त्र नहीं होता लेकिन चेतना एवं जीवनी शक्ति  तो उनमें प्राणियों से भी अधिक  होती है .
                इस तरह तथ्यात्मक बात यह है कि ब्रह्म शब्द के लेटिन अनुवाद ब्रेन शब्द को जाने बिना आप ब्रह्म शब्द को भ्रामक धारणा में ले जाते हैं तो ब्रह्म को ब्रेन तक सीमित करने से वैज्ञानिक वर्ग अर्धसत्य में बँध कर रह जाता है अथवा आप जब धार्मिक-वैज्ञानिक साहित्य में लिखे तथ्यों को समझने का प्रयास कर रहे होते हैं तो आपके लिए भी ब्रह्म भ्रम बनकर रह जाता है.
           सबसे पहले इस विषय को लेने का कारण यह है कि एक तरफ तो यह मजबूरी है कि संस्कृत के मूल शब्दों का उपयोग किये बिना काम नहीं चल सकता तो दूसरी तरफ इन शब्दों को लेकर भ्रांतियाँ और पूर्वाग्रह स्थापित हो चुके हैं. आप मनोरंजक साहित्य और बोलचाल की भाषा में तो नए-नए शब्द गढ़ सकते हैं लेकिन जब विषय दार्शनिक-वैज्ञानिक चल रहा होता है तो मूल शब्दों के मूल शब्दार्थों को जानना पहली आवश्यकता होती है. क्योंकि तभी तर्क संगत बात कही जा सकती है वर्ना तर्क पर कुतर्क हावी हो जाते हैं. गंभीर वार्ताएं वाद-विवाद का रूप लेकर बिना परिणाम दिए ही समाप्त हो जाती हैं. जैसे कि ब्रह्म शब्द को ही लें .
               अध्ययन-चिंतन-मनन करने की क्रिया को ब्रह्म में रमण करना कहा जाता है. इस क्रिया को करने वाला व्यक्ति ब्रह्मण कहलाता है, ब्रह्म + रमण में ब्रह्म के पीछे तथा रमण के आगे रम का उपयोग हो रहा है. ब्रह्म और रमण का समास होने पर रम का उच्चारण दो बार नहीं होकर एक बार ही होता है तब ब्रह्म + रमण = ब्रह्मण उच्चारित होता है. ब्रह्मण परम्परा की पालना करने वाला ब्राह्मण कहलाता है.
             ब्राह्मण शब्द का प्रयोग-उपयोग अध्ययन-चिन्तन-मनन तत्पश्च्यात अध्यापन कार्य करने वाले अध्यापक के लिए किया जाता है. लेकिन जिस समय भारत में ब्रह्मण परम्परा की पालना करने वाले ब्राह्मणों (अध्यापकों) के वर्चस्व वाली व्यवस्था पद्धति चल रही थी तब हर कोई ब्राह्मण बनने का इच्छुक था जैसे कि आज हर कोई बणिया बनना चाहता है.
             छठी शताब्दी में जब आचार्य शंकर के नेतृत्व में अद्वैत आन्दोलन चलाया गया था तब ब्राह्मण परंपरा और वैदिक परंपरा को एक कर दिया गया अर्थात अध्यापक और वैद्य एक हो गए. वैद्य को वैदिक ब्राह्मण के रूप में मान्यता दे दी गयी. फिर धीरे-धीरे वैदिक पुरोहित जो कि यज्ञशालाओं (देवालयों की पाकशालाओं) में भोजन पकाने का काम करते थे उन्होंने भी अपने लिए ब्राह्मण शब्द का उपयोग करना शुरू कर दिया. उस समय देवालय ही व्यवस्था के केंद्र थे, देवालय गुरुओं की गवर्नमेंट के कार्यालय थे, अतः प्रतिमाओं के पुजारी भी अपने आप को ब्राह्मण कहने लग गए. फिर भी सोलहवीं शताब्दी तक मूल रूप में अध्यापक ही ब्राह्मण कहलाते रहे. लेकिन अठारह सौ सत्तावन की घटना के बाद जब ब्रिटिश सरकार स्थापित हुई तब इंग्लेंड में बैठे आकाओं ने भारतीयों के ब्रेन (ब्राह्मणों) का वर्चस्व समाप्त करने के लिए अनेक उपाय किये. अंततः आज भारत इस स्थिति में पहुँच गया है कि ब्राह्मण शब्द अपनी प्रासंगिकता खो चुका है. आज तो यह स्थिति है कि ब्राह्मण कहने पर हर किसी का ध्यान पण्डे-पुजारियों की तरफ जाता है. यह भी संभव है कि कुछ लोगों को यह जान कर आश्चर्य हो कि ब्राह्मण का अर्थ अध्यापक होता है. फिर आज का अध्यापक यानी ब्राह्मण पद तो इतना दीन-हीन-कृपण हो गया है कि अध्ययन अध्यापन करना और समाज का ब्रेन बनना तो दूर पाठ्य पुस्तकों में लिखा ग़लत ज्ञान यानि अज्ञान भी उन्हें रट कर पढ़ाना पड़ता है।
     

4 शब्द ब्रह्म  बनाम  ब्रह्म शब्द 

                शब्द ब्रह्म होता है,ब्रह्म शब्द होता है. शब्द जब आपके कान में पड़ता है तो वह आपके ब्रह्म को प्रभावी करता है जबकि ब्रह्म को न जानने वाले के लिए ब्रह्म मात्र एक शब्द है. लेकिन जो ब्रह्म की परिभाषा,ब्रह्म का वैज्ञनिक स्वरूप और दार्शनिक विवेचना यानि डिज़ाइन नहीं जान कर कोई खोटा अर्थ जानता है या अपने मन से ही कोई अर्थ गढ़ लेता है तो उसके लिए ब्रह्म एक भ्रम बन जाता है.
शब्द ब्रह्म को विस्तार से जानने के लिए तो यह ब्लॉगवार्ता निरंतर चलती ही रहेगी क्योंकि इतने सारे विषय हैं और उनके बड़े-बड़े शब्दकोष हैं. व्यावहारिक-जगत से जुड़ा वैदिक विषय है अतः सब के लिए एक समान  महत्व रखता है. लेकिन बिना शब्द वाले ब्रह्म का विषय आपका आत्म धर्म का विषय है. इसके विषय में जानना आप के निजी ब्रह्म की रूचि पर निर्भर है जो आप को मुनि वेदव्यास के ब्लॉग में मिलेगा. उनका नाम वेदव्यास है ही इसलिए कि वे वेदों की विस्तार से विवेचनात्मक परिपूर्ण व्याख्या कर सकते हैं.
        लेकिन चार ब्रह्म सूत्र ऐसे हैं जो प्रमुख होते हुए भी सरलता से समझे जा सकते हैं.
1.ब्रह्म जगत उद्भव  कारणम.
2.एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति           
3.ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या .
4.अहम ब्रह्मास्मि .
        अभी जो सन्दर्भ चल रहा है उसमें इतना ही जानना पर्याप्त है कि आप जिसे 'आप' कह कर उच्चारण करते हैं, वह 'आत्म' का ही हिंदी रूपांतरण है. 
आप अपने आप में तीन हैं.
1..अहम = अहम ब्रह्मास्मि वाला यह निराकार अहम जब कुंठित होकर आकर ले लेता है तो वह अहंकार रूप में दूसरों के सामने व्यक्त होने लग जाता है. जबकि अहम् को तो अपने आप को जानने के  माध्यम के लिए जानना चहिये . 
2.आत्म =जिसका हिंदी रूपांतरण आप है. आप अपने आप को भी आप कहते हैं तो तुम के लिए आदर रूप में भी आप कहा जाता है जैसे कि मैं आपको भी आप कह रहा हूँ और जो आप को कह रहा हूँ वह मुझ पर यानी अपने आप पर भी लागू होता है.  
3.स्वयं =जिसका तात्पर्य शरीर से है. जब मैं कहूँ 'आपका शरीर!', तो उसका तात्पर्य होता है आपकी आत्मा का, आप के आत्म का स्वयं का शरीर.
         जब आप 'मैं' कहते हैं तो आप तीनों एक हो कर बोलते हैं.                                                                                  
         जब अहम ब्रह्मास्मि बोलते हैं तो आप ब्रह्म के प्रतिनिधि होते हैं.  
         जब शिवोहम बोलते हैं तो आप 108 परमाणुओं से बने शरीर का प्रतिनिधि बन कर बोल रहे होते हैं. तब आप शम की शांति को प्राप्त करके शम्भु होते हैं.
       जब स्वायम बोल रहे होते हैं तो शरीर की प्रकृति के प्रतिनिधि बन कर बोल रहे होते हैं,जो एक कालखंड को पूरा कर के यम की यान्ति को प्राप्त हो जाती है तब आपका यह स्वायम भू अधिनायक भी उसी समय भू /मिट्टी में मिल जाता है.
         इस तरह जब तक आप हैं निजी तौर पर विशिष्ट हैं. आपके जैसा इस दुनिया में कोई नहीं है न कभी था न कभी होगा. साथ ही साथ यह भी जान लें कि आपके इस शरीर में ही सब कुछ है भगवान ईश्वर नामक जो भी रचना है,जो भी शक्ति है,जो भी भाव है सब शरीर के अन्दर ही है. 
         लेकिन आप जितने अधिक दुनियादारी में फँसते हैं यानी राग एवं द्वैष जनित प्रतिस्पर्धा में फँसते हैं तब आप जगत का एक अंश मात्र होते हैं तब आप की नीयत ही इस भीड़ की धक्का-मुक्की खाने की नियति में बदल जाती है तो इसमें दूसरा कोई क्या करेगा? इस धक्का-मुक्की में आपकी पूछ तभी होती है जब आप अपने सभी काम निपुणता से कर सकते हैं. जिनमें एक काम बातचीत करना भी है.
      बोलना,भावों को कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक व्यक्त कर देना और आवश्यकता हो तो एक तथ्य को विस्तार से समझा भी देना यानी दोनों योग्यताओं का योग कर लेना.
       मैं देवर्षि नारद कभी भाषा एवं शब्द-ब्रह्म विषय को पढ़ाने वाले गुरुकुलों का कुलगुरु, कुलपति, Councilor  हुआ करता था. बाद मे मुझे पत्थर की प्रतिमा बना दिया गया. 
         अभी मेरा जो रूप है वह  यक्षों-राक्षसों  का दिया हुआ है. अपना परिचय विस्तार से आगे दे रहा हूँ. अभी तो आप अपने आप के बारे में बस इतना ही जानें कि आपका अहंकार ही आपको ऊंचाई तक ले जाता है लेकिन अपनी प्रकृति को वश में करें और अहंकार को व्यक्त नहीं होने दें. यह तभी सम्भव है जब आप शब्द ब्रह्म को समझ कर उसका उपयोग करें.       

5 शब्द का शब्दार्थ-तत्वार्थ -भावार्थ  

धार्मिक वैज्ञानिक भाषा संस्कृत की शब्दावली में शब्दों के तीन-तीन अर्थ चलते हैं।
 शब्दार्थ:-
          प्रत्येक शब्द का एक ही शब्दार्थ होता है। महेश्वर सूत्र के अनुसार सुनिश्चित करके बनाये गए शब्द का शब्दार्थ जानना पहली आवश्यकता है। यदि आप शब्द के शब्दार्थ की अवहेलना करके सीधे भावार्थ में चले जाते हैं तो भावनाओं में बह जाते हैं.
तत्वार्थ :-
        तीन तात्विक अर्थ होते हैं.....
1. आध्यात्मिक (आत्मिक )  जिसमें ब्रह्म का भाव हो. (मनोविज्ञान) Psychology .....Event 
2. आधिदैविक   (दैविक )       जिसमे शरीर का भाव  हो.(शरीरविज्ञान) Physiology.....Element
3.आधिभौतिक  (भौतिक )     जिसमे देह का भाव हो.(समाजविज्ञान) Sociology.राजनीति, अर्थशास्त्र 
             देह Decompose हो कर भोग को प्राप्त हो जाती है. जबकि शरीर का तात्पर्य अणुओं-परमाणुओं से है जो मरते नहीं है.
          ब्रह्म जिस चुम्बकीय क्षेत्र magnetic field को कहते हैं वह भी नष्ट नहीं होता. भौतिक देह से जुड़ा भौतिक जगत /समाज देह की तरह ही परिवर्तनशील है. समाज विज्ञान पुनः तीन भागों में वर्गीकृत होता है. राजनैतिक समाज, आर्थिक समाज, पारिवारिक समाज. इन सभी विषयों के अर्थ भी क़रीब-क़रीब सुनिश्चित होते हैं. जो तर्क संगत तात्कालिक तात्विक तात्पर्य के अनुसार निकाले जाते हैं. 
भावार्थ :- 
         एक ही शब्द के विविध भावार्थ होते हैं. भाव के अर्थ में अनेक बार शब्दार्थ और तत्वार्थ दोनों गौण हो जाते हैं. अतः यहाँ यह देखा जाता है कि बोलने वाले का मन्तव्य क्या है ? एक ग्रामीण अधिक संवेदनशील, अधिक समझदार, अधिक ज़िम्मेदार, अधिक विद्वान् हो सकता है. लेकिन वह मान्यता प्राप्त साहित्यिक शब्दों को नहीं बोलता है तो उसे गँवार कह दिया जाता है, जबकि उस समय उसका मन्तव्य समझने में ही समझदारी होती है.
         अनेक बार शब्द शुभ और अशुभ के चक्कर में फंस जाते हैं इस सन्दर्भ में...
                                                                      एक अक्रोध                                                                                      
            गाँव के सभी लोग बुआजी से इसलिए परेशान थे क्योंकि बुआजी अशुभ बोलती थी .एक बार गाँव वालों ने कहा :"बुआजी हम आपको पूरे वर्ष का अनाज एक साथ दे दें तब तो आप हमें कभी भी अपशगुन की बात नहीं बोलेंगी ?."
बुआजी::"पक्का रहा क्या तुम हर हालत में मुझे साल भर का अनाज एक साथ दोगे ?"
गाँव वाले :"हाँ हाँ पक्का रहा "
बुआजी :"देखो कान खोलकर सुन लो! मुझे साल भर का अनाज एक साथ चाहिए, भले ही तुम्हारे खेतों में आग लग जाये."
   इस तरह के अशुभ शब्द आपको तब प्रभावित करते हैं जब आपका ब्रह्म प्रभावित हो जाता है वर्ना तो तांत्रिक क्रियाएं भी आप को प्रभावित नहीं कर सकती हैं.


6  श्री मत भागवत गीता शब्द कोष है.

         एक छोटा सा आख्यान है. गीत की तरह गाई जाने वाली शब्द रचना है. जिसके अंत में लिखा है "मैंने तुझे अशेषेण बता दिया है अब जो इच्छा है वह कर" अर्थात दुनिया का ऐसा कोई विषय नहीं है जिसके मूल सैद्धांतिक सूत्र गीता में संकलित नहीं हैं. 
        जिस तरह गीता के ज्ञाता कबीर दास जी की रचनाएँ प्राथमिक कक्षाओं से लेकर मास्टर डिग्री तक अनवरत चलती है और सबसे अधिक मास्टर ऑफ़ लिट्रेचर कबीर की रचनाओं पर शोध करने वालों को मिली हैं. उसी तरह एक समय ऐसा भी था जब गुरुकुलों में प्रारंभ से लेकर आचार्य तक की उपाधि तक गीता अनवरत चलती थी. गीता के विभूति योग में भाषा के तीन मूल सूत्रों को भगवन ने अपनी विभूति बताते हुए कहा है.- अक्षरों में मैं अकार हूँ, समासों में द्वंद्व नामक समास हूँ और कालों में विश्वोंमुखी अक्षय काल हूँ.  भाषा के इन तीन आधारों को समझना कल्याणकारी होगा.                          

7 अक्षरों में अकार

        भाषा में वाक्य जब क्षर होता है तो शब्द बनकर बिखर जाता है. शब्द जब क्षर होता है, टूटता  है तो अक्षर बन कर बिखर जाता है. लेकिन अक्षर उसे कहते हैं जो क्षर होने (टूटने) के विपरीत परस्पर जुड़ता है और शब्द बनता है. इस तरह अक्षर भाषा की मूल रचना, Raw material है .इन अक्षरों में सबसे पहला और सबसे प्रभावशाली अक्षर है अ.  अंग्रेजी की अ ब स द में भी  पहला अक्षर है. अल्फाबेटिक प्रणाली की मूल अरबी/उर्दू में भी अलिफ़-बे-पे-ते-टे-से; में भी पहला अक्षर अ है. अधिकांश भाषाओं में ऐसा ही है. यह एक ऐसा स्वर/सुर है जो गूंगा भी बोल सकता है.
           लेकिन साहित्यिक शब्दावली में जब किसी शब्द के आगे  लग जाता है तो उसका तत्वार्थ "नहीं" लिया जाता है. जब कि यह ग़लत है जैसे कि अज्ञान का अर्थ ज्ञान नहीं होना लिया जाता है जब कि यह ग़लत है.  को 'नहीं'  के अर्थ में लेना शब्द के अर्थ को अनर्थ कर देता है. 
           ज्ञान नहीं होने के अर्थ में अनभिज्ञता शब्द का उपयोग होता है. अर्थात जहाँ अन और अंग्रेज़ी में भी un जुड़ कर unknown बनता है तब नहीं की तरह अर्थ देता है. जब कि शब्द के आगे अ लगने से मूल शब्द के विपरीत अर्थ हो जाता है अर्थात अज्ञान का अर्थ है खोटा ज्ञान,ग़लत ज्ञान, ग़लत जानकारी, मूल ज्ञान के विपरीत ज्ञान. 
ज्ञानी               =      पुण्य का संचय रखने वाला 
अनभिज्ञ         =      निष्पाप, अनघ,अनघड़ 
अज्ञानी           =      पाप से ग्रसित
अव्यवस्था       =     जैसी व्यवस्था होनी चाहिए उससे उलट व्यवस्था
इस तरह अ अक्षर सभी अक्षरों में विभूति रूप है.विभूति अर्थात अपने विषय के धर्म में यानी अपने विषय की गुण धर्मिता में यानी अपने विषय के कर्त्तव्य में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्टतम भूमिका निभाने वाला . 

  8 समासों में द्वंद्व समास

        अक्षर जब समास होते हैं, compound बनते हैं तो शब्द रचना बनती हैं तथा दो शब्द जब समास होते हैं तो दो भाव जुड़कर एक परिभाषा बन जाती है.जैसे सम+गत =संगत,सम+गीत=संगीत,सम+आज=समाज,सम+प्रदाय=सम्प्रदाय ,सम+विधान=संविधान ,परम+आत्मा =परमात्मा ,परम+अर्थ=परमार्थ ,अव+धारणा =अवधारणा,अधि+आत्म=अध्यात्म इत्यादि .
समासों में द्वंद्व समास उसे कहा जाता है जिसमे दो शब्दों में आगे पीछे का क्रम बदल जाता है. क्रम बदलते ही अर्थ बदल जाता है. इन अर्थों को लेकर अंतर्द्वंद्व बना रहता है,द्वन्द्वात्मक अर्थ निकलते है. उदाहरण के रूप में :
आचार्य-शंकर...........व्यक्ति का नाम 
शंकराचार्य................उपाधि 
कुलगुरु..................पद या उपाधि 
गुरुकुल....................संस्था का नाम
व-ए-द = वेद............विद धातु से बना शब्द है जिसका अर्थ है विद्याओं के विज्ञान की जानकारी. यह क्रिया है. 
द-ए-व = देव............वैज्ञानिक विद्याओं को जानने वाला विद्वान्. यह संज्ञा हो गया.  
(नोट:- जब-तब और शब्द जुड़ते जायेंगे. आप निरंतर देखते रहें.) 
काम-अर्थ................ कामार्थ (अंग्रेज़ी रूपांतरण कॉमर्स) व्यापार से सम्बंधित  
अर्थ-काम................सार्थक काम 
राज-नीति...............राज करने की नीति
नीति-राज...............नीति समर्थक,नैतिकता का राज 

   9 "विश्वोंमुखी अक्षय काल हूँ"


          "विश्वोंमुखी अक्षय काल हूँ" का संकेत भाषा के तीसरे आयाम भूतकाल-वर्तमानकाल-भविष्यत् काल की तरफ़ है.
         इस तरह "अ" का उपयोग जिस शब्द के आगे किया गया है उसका अर्थ उस शब्द के विपरीत समझें न कि "नहीं" के रूप में.
       द्वंद्व समास की विशेषता है एक ही शब्द में पूरे वाक्य जितना अर्थ बता देना.
       इसके साथ जब भूतकाल-वर्तमानकाल-भविष्यत् काल की तरफ संकेत देने वाले अक्षर था,थी,थे;हूँ, है;गा, गे, गी; का उपयोग करके शब्द रचना करने में पारंगत हो जाये हैं तो आप बिना व्याकरण के सिर्फ़ शब्द ब्रह्म से काम चला लेते हैं.
       आप जब मौन रह कर सिर्फ़ संकेत से ही अपनी भाव अभिव्यक्ति कर लेते हैं तो उसे शब्द ब्रह्म का उल्लंघन कहा जाता है. लेकिन जब आप एकांत में रहते हुए सिर्फ़ सोचते हैं और वे विचार उस विषय से जुड़े व्यक्तियों के ब्रह्म में स्वतः उपज जाते हैं तो उसे शब्द ब्रह्म का उल्लंघन करने वाली एकात्म-ब्रह्म परंपरा कहा गया है.
        लेकिन जब आप ब्रह्म परंपरा और वेद परंपरा दोनों को यानी भाव और अभिव्यक्ति (भावाभिव्यक्ति) दोनों को एक साथ लेकर चलते हैं तो इसे अद्वैत परंपरा कहा जाता है.
        लेकिन जब आप ब्रह्म/brain को भ्रम में ले जाते हैं तब वेद(विद्याओं का कामार्थ उपयोग करते हैं तब आप व्यक्ति और सामूहिक दोनों रूपों में टूट कर दो (द्वैत) हो जाते हैं.  

10  अध्यात्म = स्वभाव +प्रवृति+नीयत

             जिस तरह एक शब्द के तीन तत्वार्थ निकलते हैं. उसी तरह तीन गुना तीन के अनुसार अध्यात्म  के भी तीन तात्पर्य निकलते हैं
स्वभाव :
 वाक्यों में प्रयोग करें तो ये वाक्य बनते हैं.-
       व्यक्ति को चाहिए की वह स्वयं के स्वाभाविक स्वाभाव में स्वाभाविकता को बनाये  रखे .
       व्यक्ति को चाहिए की वह स्वयं के स्वभाव की स्वाभाविक स्थिति को ना तो छिपाए ना ही उसका त्याग करे.
    स्वाभाविक रूप से सहज रहना ही अध्यात्म है.
प्रवृति :
         जब आप अपना यानि ब्रह्म का सृजन कर रहे होते हैं, अपना करियर बना रहे होते हैं,शिक्षित हो रहे होते हैं, अध्ययन कर रहे होते हैं, ब्रह्म विस्तार ले रहा होता है,स्मृति की सामर्थ्य बढ़ा रहा होता है तब स्वयं के शरीर की प्रकृति बाधा डाल सकती है.अतः अपनी प्रकृति को अधीन करके ब्रह्म अपना सृजन करता है.क्योंकि: 
        जैसी शरीर की प्रकृति होती है वैसी ही प्रवृति /फ़ितरत बन जाती है अतः वह वैसी ही वृति /जॉब/रोजगार का चुनाव करता है उसमें कोई क्या करेगा?
        अतः यदि ऐसी आर्थिक-सामाजिक-प्रशासनिक पद्धति विकसित कर दी जाये जिसमें यह सुविधा हो कि : जिसकी जैसी प्रवृति हो वह वैसा ही रोज़गार चुन सके तो उसे आध्यत्मिक व्यवस्था पद्धति कहा जायेगा .
तब ना तो कोई अकर्मण्य रहेगा ना ही अयोग्य रहेगा.
       शरीर की प्रकृति कैसे अधीन हो यह आधिदैविक विषय शरीरविज्ञान का विषय है जो आहार द्वारा संचालित होता है. इस विषय में विस्तार से तो वेदव्यास के ब्लॉग में से जानें. यहाँ इतना ही जानना पर्याप्त है कि:
       जैसा खाए अन्न वैसा ही हो मन .
       इस तरह आधी-व्याधि साथ-साथ चलती है.
नीयत:
        स्वभाव वैष्णव परम्परा के सांख्य-योग का शब्द है,.प्रवृति शैव परम्परा के सांख्य-योग का शब्द है,.जबकि नीयत ब्राह्मण परम्परा के सांख्य-योग का शब्द है. इसके वाक्य बनते हैं.
       जैसी नीयत होती है वैसी ही नियति बन जाती है.
       नीयत  से किये हुए कर्म का फल नियति द्वारा निर्धारित हो जाता है.
      आपकी नीयत यदि लक्ष्य को प्राप्त करने की होती है तो नियति आपको अवश करके लक्ष्य की तरफ धकेलती है.
     आप अपनी नीयत सुनिश्चित करलें आपका लक्ष्य सुनिश्चित हो जायेगा तब नियति आपको लक्ष्य तक पंहुचा  कर छोड़ेगी ..
           मैं देवर्षि नारद ब्रह्मा का मानस पुत्र हूँ .मैं जिस मानस की उपज हूँ उस मानस के दो पुत्र ,मुनि वेदव्यास एवं स्वायमभू अधिनायक और भी हैं . हमारे पिता बृज-मोहन वशिष्ठ की नीयत ही थी कि नियति ने हमें उनके मानस से पैदा किया . 













अध्यात्म = स्वभाव + प्रवृति+ नीयत


जिस तरह एक शब्द के तीन तत्वार्थ निकलते हैं,उसी तरह तीन गुना तीन के अनुसार अध्यात्म  के भी तीन तात्पर्य निकलते हैं.
स्वभाव :
 वाक्यों में प्रयोग करें तो ये वाक्य बनते हैं.-
       व्यक्ति को चाहिए कि वह स्वयं के स्वाभाविक स्वभाव में स्वाभाविकता को बनाये  रखे .
       व्यक्ति को चाहिए की वह स्वयं के स्वभाव की स्वाभाविक स्थिति को ना तो छिपाए ना ही उसका त्याग करे .
    स्वाभाविक रूप से सहज रहना ही अध्यात्म है.
प्रवृति :
         जब कोई व्यक्ति अपना यानी ब्रह्म का सृजन कर रहा होता है,अपना करियर बना रहा होता है,शिक्षित हो रहा होता है,अध्ययन कर रहा होता है, ब्रह्म विस्तार ले रहा होता है,स्मृति की सामर्थ्य बढ़ा रहा होता है तब उसके  स्वयं के शरीर की प्रकृति बाधा डाल सकती है. अतः अपनी प्रकृति को अधीन करके ब्रह्म अपना सृजन करता है.क्योंकि: 
        जैसी शरीर की प्रकृति होती है वैसी ही प्रवृत्ति /फ़ितरत बन जाती है अतः वह वैसी ही वृति /जॉब/रोज़गार का चुनाव करता है उसमें कोई क्या करेगा?
        अतः यदि ऐसी आर्थिक-सामाजिक-प्रशासनिक पद्धति विकसित कर दी जाये जिसमें यह सुविधा हो कि : जिसकी जैसी प्रवृति हो वह वैसा ही  रोज़गार चुन सके तो उसे आध्यात्मिक  व्यवस्था पद्धति कहा जायेगा .
तब ना तो कोई अकर्मण्य रहेगा ना ही अयोग्य रहेगा.
       शरीर की प्रकृति कैसे अधीन हो यह आधिदैविक विषय शरीरविज्ञान का विषय है जो आहार द्वारा संचालित होता है. इस विषय में विस्तार से तो वेदव्यास के ब्लॉग में से जानें यहाँ इतना ही जानना पर्याप्त है कि:
       जैसा खाए अन्न वैसा ही हो मन .
       इस तरह आधि-व्याधि साथ-साथ चलती है.
नीयत:
        स्वभाव वैष्णव परम्परा के सांख्य-योग का शब्द है,.प्रवृत्ति शैव परम्परा के सांख्य-योग का शब्द है,.जबकि नीयत ब्राह्मण परम्परा के सांख्य-योग का शब्द है. इसके वाक्य बनते हैं.
       जैसी नीयत होती है वैसी ही नियति बन जाती है.
       नीयत  से किये हुए कर्म का फल नियति द्वारा निर्धारित हो जाता है.
      आपकी नीयत यदि लक्ष्य को प्राप्त करने की होती है तो नियति आपको अवश करके लक्ष्य की तरफ़ धकेलती है.
     आप अपनी नीयत सुनिश्चित कर लें आपका लक्ष्य सुनिश्चित हो जायेगा. तब नियति आपको लक्ष्य तक पँहुचा कर छोड़ेगी ..
           मैं देवर्षि नारद ब्रह्मा का मानस पुत्र हूँ . मैं जिस मानस की उपज हूँ उस मानस के और दो पुत्र मुनि वेदव्यास एवं स्वायमभू अधिनायक भी हैं .हमारे पिता बृज-मोहन वशिष्ठ की नीयत ही थी कि नियति ने हमें उनके मानस से पैदा किया . 









"विश्वोंमुखी अक्षय काल हूँ"


                                


"विश्वोंमुखी अक्षय काल हूँ" का संकेत भाषा के तीसरे आयाम भूतकाल-वर्तमानकाल-भविष्यत् काल की तरफ़ है.
         इस तरह "अ" का उपयोग जिस शब्द के आगे किया गया है उसका अर्थ उस शब्द के विपरीत समझें न की "नहीं" के रूप में समझें.
       द्वंद्व समास की विशेषता है एक ही शब्द में पूरे वाक्य जितना अर्थ बता देना.
       इसके साथ जब भूतकाल-वर्तमानकाल-भविष्यत् काल की तरफ संकेत देने वाले अक्षर  था,थी,थे;हूँ, है;गा, गे, गी; का उपयोग करके शब्द रचना करने में पारंगत हो जाये हैं तो आप बिना व्याकरण के सिर्फ़ शब्द ब्रह्म से काम चला लेते हैं.
       आप जब मौन रह कर सिर्फ़ संकेत से ही अपनी भाव अभिव्यक्ति कर लेते हैं तो उसे शब्द ब्रह्म का उल्लंघन कहा जाता है.लेकिन जब आप एकांत में रहते हुए सिर्फ़ सोचते हैं और वे विचार उस विषय से जुड़े व्यक्तियों के ब्रह्म में स्वतः उपज जाते हैं तो उसे शब्द ब्रह्म का उल्लंघन करने वाली एकात्म-ब्रह्म परंपरा कहा गया है.
        लेकिन जब आप ब्रह्म परंपरा और वेद परंपरा दोनों को यानि भाव और अभिव्यक्ति(भावाभिव्यक्ति) दोनों को एक साथ लेकर चलते हैं तो इसे अद्वैत परंपरा कहा जाता है.
        लेकिन जब आप ब्रह्म/brain को भ्रम में ले जाते हैं तब वेद(विद्याओं का कामार्थ उपयोग करते हैं तब आप व्यक्ति और सामूहिक दोनों रूपों में टूट कर दो (द्वैत ) हो जाते हैं.  


समासों में द्वंद्व समास


                                    

अक्षर जब समास होते हैं, compound बनते हैं तो शब्द रचना बनती हैं तथा दो शब्द जब समास होते हैं तो दो भाव जुड़कर एक परिभाषा बन जाती है.जैसे सम+गत =संगत ,सम+गीत=संगीत ,सम+आज=समाज,सम+प्रदाय=सम्प्रदाय ,सम+विधान=संविधान ,परम+आत्मा =परमात्मा ,परम+अर्थ=परमार्थ ,अव+धारणा=अवधारणा,अधि+आत्म=अध्यात्म इत्यादि .
समासों में द्वंद्व समास उसे कहा जाता है जिसमे दो शब्दों में आगे पीछें का क्रम बदल जाता है.क्रम बदलते ही अर्थ बदल जाता है .इन अर्थों को लेकर अंतर्द्वंद्व बना रहता है,द्वन्द्वात्मक अर्थ निकलते है.उदाहरण के रूप में :
आचार्य-शंकर...........व्यक्ति का नाम 
शंकराचार्य................उपाधि 
कुलगुरु..................पद या उपाधि 
गुरुकुल....................संस्था का नाम
व-ए-द = वेद............विद धातु से बना शब्द है जिसका अर्थ है विद्याओं के विज्ञानं की जानकारी.यह क्रिया है. 
द-ए-व = देव............वैज्ञानिक विद्याओं को जानने वाला विद्वान्. यह संज्ञा हो गया.  
(नोट:- जब तब शब्द जुड़ते जायेगे आप निरंतर देखते रहें.) 
काम-अर्थ................ कामार्थ (अंग्रेजी रूपांतरण कॉमर्स) व्यापार से सम्बंधित  
अर्थ-काम................सार्थक काम 
राज-नीति...............राज करने की नीति
नीति-राज...............नीति समर्थक,नैतिकता का राज 

अक्षरों में अकार


                                       

        भाषा में वाक्य जब क्षर होता है तो शब्द बनकर बिखर जाता है. शब्द जब क्षर होता है, टूटता  है तो अक्षर बन कर बिखर जाता है. लेकिन अक्षर उसे कहते हैं जो क्षर होने (टूटने) के विपरीत परस्पर जुड़ता है और शब्द बनता है. इस तरह अक्षर भाषा की मूल रचना, Raw material है .इन अक्षरों में सबसे पहला और सबसे प्रभावशाली अक्षर है अ.  अंग्रेजी की अ ब स द में भी  पहला अक्षर है. अल्फाबेटिक प्रणाली की मूल अरबी/उर्दू में भी अलिफ़-बे-पे-ते-टे-से; में भी पहला अक्षर अ है. अधिकांश भाषाओं में ऐसा ही है. यह एक ऐसा स्वर/सुर है जो गूंगा भी बोल सकता है.
           लेकिन साहित्यिक शब्दावली में जब किसी शब्द के आगे  लग जाता है तो उसका तत्वार्थ "नहीं" लिया जाता है. जब कि यह ग़लत है जैसे कि अज्ञान का अर्थ ज्ञान नहीं होना लिया जाता है जब कि यह ग़लत है.  को 'नहीं'  के अर्थ में लेना शब्द के अर्थ को अनर्थ कर देता है. 
           ज्ञान नहीं होने के अर्थ में अनभिज्ञता शब्द का उपयोग होता है. अर्थात जहाँ अन और अंग्रेजी में भी un जुड़ कर unknown बनता है तब नहीं की तरह अर्थ देता है. जब कि शब्द के आगे अ लगने से मूल शब्द के विपरीत अर्थ हो जाता है अर्थात अज्ञान का अर्थ है खोटा ज्ञान,ग़लत ज्ञान, ग़लत जानकारी, मूल ज्ञान के विपरीत ज्ञान. 
ज्ञानी               =      पुण्य का संचय रखने वाला 
अनभिज्ञ         =      निष्पाप, अनघ,अनघड
अज्ञानी           =      पाप से ग्रसित

अव्यवस्था =जैसी व्यवस्था होनी चाहिए उससे उलट व्यवस्था


इस तरह अ अपने आप में भगवान का विभूति रूप है. 

      

शब्द का शब्दार्थ-तत्वार्थ -भावार्थ


                                            

धार्मिक वैज्ञानिक भाषा संस्कृत की शब्दावली में शब्दों के तीन-तीन अर्थ चलते हैं।
 शब्दार्थ:-
          प्रत्येक शब्द का एक ही शब्दार्थ होता है। महेश्वर सूत्र के अनुसार सुनिश्चित करके बनाये गए शब्द का शब्दार्थ जानना पहली आवश्यकता है। यदि आप शब्द के शब्दार्थ की अवहेलना करके सीधे भावर्थ में चले जाते हैं तो भावनाओं में बह जाते हैं.
तत्वार्थ :-
        तीन तात्विक अर्थ होते हैं.....
१. आध्यात्मिक (आत्मिक ) जिसमे ब्रह्म का भाव हो.(मनोविज्ञान) Psychology .....Event 
२. आधिदैविक  (दैविक )     .जिसमे शरीर का भाव  हो.(शरीरविज्ञान) Physiology.....Element
३.आधिभौतिक  (भौतिक )...जिसमे देह का भाव हो.(समाजविज्ञान) Sociology.राजनीती ,अर्थशास्त्र 
             देह Decompose हो कर भोग को प्राप्त हो जाती है.जबकि शरीर का तात्पर्य अणुओं-परमाणुओं से है जो मरते नहीं  है.तथा
          ब्रह्म जिस  चुम्बकीय क्षेत्र magnetic field को कहते हैं वह भी  नष्ट नहीं होता .भौतिक देह से जुड़ा भौतिक जगत /समाज देह  की  तरह ही परिवर्तनशील है.समाज विज्ञानं पुनः तीन भागों में वर्गीकृत होता है.राजनैतिक समाज, आर्थिक समाज,पारिवारिक समाज .इन सभी विषयों के अर्थ भी क़रीब -क़रीब  सुनिश्चित होते हैं .जो तर्क संगत, तात्कालिक, तात्विक तात्पर्य के अनुसार निकाले जाते हैं. 
भावार्थ :- 
         एक ही शब्द के विविध भावार्थ होते हैं.भाव के अर्थ में अनेक बार शब्दार्थ और तत्वार्थ दोनों गौण हो जाते हैं.अतः यहाँ यह देखा जाता है की बोलने वाले का मन्तव्य क्या है ?एक ग्रामीण अधिक संवेदनशील ,अधिक समझदार,अधिक ज़िम्मेदार,अधिक विद्वान् हो सकता है.लेकिन वह मान्यता प्राप्त साहित्यिक शब्दों को नहीं बोलता है तो उसे गंवार कह दिया जाता है,जबकि उस समय उसका मन्तव्य समझने में ही समझदारी होती है.
         अनेक बार शब्द शुभ और अशुभ के चक्कर में फंस जाते हैं इस सन्दर्भ में एक
                                                       हास्य-व्यंग  उदाहरण
            गाँव के सभी लोग बुआजी से इसलिए परेशान थे कि बुआजी अशुभ बोलती थी .एक बार गाँव वालों ने कहा :"बुआजी हम आपको पूरे वर्ष का अनाज एक साथ दे दें तब तो आप हमें अपशगुन की बात नहीं बोलेंगी ."
बुआजी::"पक्का रहा तुम हर हालत में मुझे साल भर का अनाज एक साथ दोगे ?"
गाँव वाले :"हाँ हाँ पक्का रहा "
बुआजी :"देखो कान खोलकर सुन लो मुझे साल भर का अनाज एक साथ चाहिए,भले ही तुम्हारे खेतों में आग लग जाये "
   इस तरह के अशुभ शब्द आपको तब प्रभावित करते हैं जब आपका ब्रह्म प्रभावित हो जाता है वर्ना तो तांत्रिक क्रियाएं भी आप को प्रभावित नहीं कर सकती हैं.


शब्द-ब्रह्म बनाम ब्रह्म-शब्द


                                       

                शब्द ब्रह्म होता है,ब्रह्म शब्द होता है.शब्द जब आपके कान  में पड़ता है तो वह आपके ब्रह्म को प्रभावी करता है जबकि ब्रह्म को न जानने वाले के लिए ब्रह्म मात्र एक शब्द है.लेकिन जो ब्रह्म की परिभाषा,ब्रह्म का वैज्ञनिक स्वरूप और दार्शनिक विवेचना यानि डिज़ाइन नहीं जान कर कोई खोटा अर्थ जनता है या अपने मन से ही कोई अर्थ गढ़ लेता है तो उसके लिए ब्रह्म एक भ्रम बन जाता है.
शब्द ब्रह्म को विस्तार से जानने के लिए तो यह ब्लॉगवार्ता निरंतर चलती ही रहेगी क्योकि इतने सारे विषय हैं और उनके बड़े बड़े शब्द क़ोश हैं व्यावहारिक-जगत से जुड़ा वैदिक विषय है अतः सब के लिए एक सामान  महत्व रखता है.लेकिन  शब्द के बिना वाले ब्रह्म का विषय आपका आत्म धर्म का विषय है.इसके विषय में जानना आप के निजी ब्रह्म की रूचि पर निर्भर है जो आप को मुनि-वेदव्यास के ब्लॉग में मिलेगा.उनका नाम वेद-व्यास है ही इसलिए कि वे वेदों  की विस्तार से विवेचनात्मक परिपूर्ण व्याख्य कर सकते हैं लेकिन चार ब्रह्म सूत्र ऐसे हैं जो प्रमुख होते हुए भी सरलता से समझे जा सकते हैं.
१.ब्रह्म जगत उद्भव  कारणम.
२.एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति           
३.ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या .
४.अहम ब्रह्मास्मि .
अभी जो सन्दर्भ चल रहा है उसमे इतना ही जानना पर्याप्त है की आप जिसे 'आप' कह कर उच्चारण करते हैं वह 'आत्म' का ही हिंदी रूपांतरण है. 
आप अपने आप में तीन हैं.
1..अहम = अहम ब्रह्मास्मि वाला यह निराकार अहम जब कुंठित होकर आकर ले लेता है तो वह अहंकार रूप में दूसरों के सामने व्यक्त होने लग जाता है.जबकि अहम् को तो अपने आप को जानने के  माध्यम के लिए जानना चहिये . 
2.आत्म =जिसका हिंदी रूपांतरण आप है.आप अपने आप को भी आप कहते हैं तो तुम के लिए आदर रूप में भी आप कहा जाता है जैसे की मैं  आपको भी आप कह रहा हूँ और जो आप को कह रहा हूँ वह मुझ पर यानि अपनेआप पर भी लागु होता है.  
3.स्वयं =जिसका तात्पर्य शरीर से है.जब मैं कहूँ आपका शरीर तो उसका तात्पर्य होता है आपकी आत्मा का,आप के आत्म का स्वयम का शरीर.
जब आप 'मैं' कहते हैं तो आप तीनों एक हो कर बोलते हैं                                                                               जब अहम ब्रह्मास्मि बोलते हैं तो आप ब्रह्म के प्रतिनिधि होते हैं  
जब शिवोहम बोलते हैं तो आप 108 परमाणुओं से बने शरीर का प्रतिनधि बन कर बोल रहे होते हैं.तब आप शम की शांति को प्राप्त करके शम्भु होते हैं.
जब स्वायम बोल रहे होते हैं तो शरीर की प्रकृति के प्रतिनिधि बन कर बोल रहे होते हैं.जो एक कल खंड को पूरा कर के यम की यान्ति को प्राप्त हो जाती है तब आपका यह स्वायम भू अधिनायक भी उसी समय भू /मिटटी में मिल जाता है.
इस तरह जब तक आप हैं निजी तोर पर विशिष्ट हैं आपके जैसा इस दुनियां में कोई नहीं है न कभी था न कभी होगा . 
लेकिन आप जितने अधिक दुनियांदारी में फंसते हैं यानि राग एवं द्वैष जनित प्रतिस्पर्धा में फंसते हैं तब आप जगत का एक अंश मात्र होते हैं तब आप की नियत ही इस भीड़ की धक्का-मुक्की खाने की नियति में बदल जाती है तो इसमें दूसरा कोई क्या करेगा? इस धक्का-मुक्की में आपकी पूछ तभी होती है जब आप अपने सभी   काम निपूणता से कर सकते हैं .जिनमे एक काम है बातचीत करना भी है.बोलना,भावों को कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक व्यक्त कर देना और आवश्यकता हो तो एक तथ्य को विस्तार से समझा भी देना यानि दोनों योग्यताओं का योग कर लेना.
मैं देवर्षि नारद कभी भाषा एवं शब्द-ब्रह्म विषय को पढ़ाने वाले गुरुकुलों का कुलगुरु,कुलपति, Consular हुआ करता था.बादमे मुझे पत्थर की  प्रतिमा  बना  दिया  गया 
अभी मेरा जो रूप है वह  यक्षो-राक्षसों  का दिया हुआ है..अपना परिचय विस्तार से आगे दे रहा हूँ अभी तो आप अपने आप के बारे बस इतना ही जानें कि आपका अहंकार ही आपको ऊंचाई तक ले जाता है लेकिन अपनी प्रकृति को वश में करें और अहंकार को व्यक्त नहीं होने दें.यह तभी सम्भव है जब आप शब्द ब्रह्म को  समझ कर के उपयोग करें       

ब्रह्म ब्रह्मा ब्राह्मण



                    संस्कृत लम्बे समय तक संस्कारित हो कर विकसित हुई धर्म एवं विज्ञानं यानि सेन्स और साइंस की भाषा है. संस्कृत के मूल शब्द (धातु रूप )बमुश्किल चार-पाँच सौ हैं लेकिन शब्द संरचना कुछ ऐसी होती है कि व्याकरण, और शब्द की परिभाषा भी साथ में रहती है.

                    उधर लेटिन ईसाई समाज की धर्म एवं विज्ञानं की भाषा है.
                   जब भारत से ज्ञान -विज्ञानं फैला तो लेटिन अमरीकी देशों चिल्ली एवं पेरू में वैदिक ज्ञान पहुँचा .   चूँकि वे भौतिक-विज्ञान में रूचि रखने वाले भौतिक-वादी थे अतः जब ब्रह्म का रूपांतरण ब्रेन हुआ तो तात्पर्य तंत्रिका तन्त्र \ नर्व सिस्टम के भौतिक रूप तक सीमित हो कर रह गया .
                 जबकि एक कोशीय जीव से लेकर विशाल वृक्षों में तंत्रिका तन्त्र नहीं होता लेकिन चेतना एवं जीवनी शक्ति  तो उनमे प्राणियों से भी अधिक  होती है .
                इस तरह तथ्यात्मक बात यह है कि ब्रह्म शब्द के लेटिन अनुवाद ब्रेन शब्द को जाने बिना आप ब्रह्म शब्द को भ्रामक धारणा में ले जाते हैं तो ब्रह्म को ब्रेन तक सीमित करने से वैज्ञानिक वर्ग अर्धसत्य में बंध कर रह जाता है अथवा आप जब धार्मिक-वैज्ञानिक साहित्य में लिखे तथ्यों को समझने का प्रयास कर रहे होते हैं तो आपके लिए भी ब्रह्म भ्रम बनकर रह जाता है.
           सबसे पहले इस विषय को लेने का कारण यह हैकि एक तरफ तो यह मज़बूरी हैकि संस्कृत के मूल शब्दों का उपयोग किये बिना काम नहीं चल सकता तो दूसरी तरफ इन शब्दों को लेकर भ्रांतियां और पूर्वाग्रह स्थापित हो चुके हैं.आप मनोरंजक साहित्य और बोलचाल की भाषा में तो नए नए शब्द गढ़ सकते हैं  लेकिन जब विषय दार्शनिक-वैज्ञानिक चल रहा होता है तो मूल शब्दों के मूल शब्दार्थों को जानना पहली आवश्यकता होती है.क्योंकि तभी तर्क संगत बात कही जा सकती है वर्ना तर्क पर कुतर्क हावी हो जाते हैं.गंभीर वार्ताएं वाद-विवाद का रूप लेकर बिना परिणाम दिए ही समाप्त हो जाती है.जैसें कि ब्रह्म शब्द को ही लें .
               अध्ययन-चिंतन-मनन करने की क्रिया को ब्रह्म में रमण करना कहा जाता है.इस क्रिया को करने वाला व्यक्ति ब्रह्मण कहलाता है,ब्रह्म + रमण में ब्रह्म के पिछें तथा रमण के आगे रम का उपयोग हो रहा है.ब्रह्म और रमण का समास होने पर रम का उच्चारण दो बार नहीं होकर एक बार ही होता है तब ब्रह्म + रमण = ब्रह्मण उच्चारित होता है.ब्रह्मण परम्परा की पालना करने वाला ब्राह्मण कहलाता है.
             ब्राह्मण शब्द का प्रयोग-उपयोग अध्ययन-चिन्तन-मनन तत्पश्च्यात अध्यापन कार्य करने वाले अध्यापक के लिए किया जाता है.लेकिन जिस समय भारत में ब्रह्मण परमपरा की पालना करने वाले ब्राह्मणों (अध्यापकों) के वर्चस्व वाली व्यवस्था पद्धति चल रही थी तब हर कोई ब्राह्मण  बनने का इच्छुक था जैसे कि आज हर कोई बनियाँ बनना चाहता है.
             छठी शताब्दी में जब आचार्य शंकर के नेत्रित्व में अद्वैत आन्दोलन चलाया गया था तब ब्राह्मण परंपरा और वैदिक परंपरा को एक कर दिया गया अर्थात अध्यापक और वैद्य एक हो गए.वैद्य को वैदिक ब्राह्मण के रूप में मान्यता देदी गयी.फिर धीरे धीरे वैदिक पुरोहित जोकि यज्ञशालाओं ( देवालयों की पाकशालाओं ) में भोजन पकाने का काम करते थे उन्होंने भी अपने लिए ब्राह्मण शब्द का उपयोग करना शुरू कर दिया.उस समय देवालय ही व्यवस्था के केंद्र थे, देवालय गुरुओं की गवर्नमेंट के कार्यालय थे, अतः प्रतिमाओं के पुजारी भी अपने आप को ब्राह्मण कहने लग गए.फिर भी सोलहवीं शताब्दी तक मूल रूप में अध्यापक ही ब्राह्मण कहलाते रहे.लेकिन अठारहसो सत्तावन की घटना के बाद जब  ब्रिटिश सरकार स्थापित हुई तब इंग्लेंड में बैठे आकाओं ने भारतियों के ब्रेन (ब्राह्मणों) का वर्चस्व समाप्त करने के लिए अनेक उपाय किये.अंततः आज भारत इस स्थिति में पहुँच गया है कि ब्राह्मण शब्द अपनी प्रसगिकता खो चुका है.आज तो यह स्थिति है कि ब्राह्मण कहने हर किसी का ध्यान पण्डे-पुजारियों की तरफ जाता है.यह भी संभव है कि कुछ लोंगों को आश्चर्य हो कि ब्राह्मण का अर्थ अध्यापक सुन कर उसे स्वीकार ही नहीं करे. 

भाषा के दो पक्ष

                    भाषा के दो पक्ष  होते हैं एक शब्द दूसरा व्याकरण .आपकी व्याकरण गलत होती है तो चल जाता है लेकिन शब्द का गलत अर्थ जानने से संवाद और ज्ञान दोनों अकल्याणकारी हो जाते है क्योंकि शब्द के अर्थ की  गलत जानकारी अर्थ का अनर्थ कर देती है इसीलिए जब आप विज्ञानं की कक्षा में प्रवेश लेते हैं तो आपका अध्यापक सबसे पहले यही कहता है कि व्याकरण गलत चल जाता है लेकिन वैज्ञानिक शब्द का सही अर्थ    जानना जरूरी है अतः सबसे पहली शुरुआत यहीं से करें यानी शब्द-क़ोश में वृद्धि करें.मैं नारद भी अपनी बातों में संस्कृत जन्य हिदी शब्दों का उपयोग कर रहा हूँ उधर वेद्व्यय्स तो और भी कठिन शब्दों का उपयोग कर रहे हैं  अतः इस ब्लॉग पर एक पंथ दो काज करते हैं.शब्द-क़ोश का शब्द क़ोश और आज हमें भारत में निर्दलीय राजनीति क्यों चाहिए इसके तर्क संगत कारण भी.
                                                         मज़ेदार उदाहरण  :
         जब जाट अंग्रेज़ों की फ़ौज में भर्ती हुआ तो अंग्रेज़ी व्याकरण तो सीख गया लेकिन अंग्रेज़ी शब्दों में कुछ चक्कर रह गया .एक दिन एजुकेशन हवलदार ने आकाश की तरफ संकेत करके पूछा:"व्हाट इज दिस " तो जाट बोला "सर, द कबूतर इज़ फ्लाईंग इन द आकाश "  और वह पास कर दिया गया .
         आप कहते हैं :'कबूतर उड़ता आकाश' ,'कबूतर आकाश में उड़ता','कबूतर उडती' ,'कबूतर उड़ रहे','कबूतर उड़ते' इत्यादि में व्याकरण की अशुद्धि तो चल जाती हैलेकिन यदि आप कबूतर और आकाश का अर्थ नहीं जानते तो नहीं चलेगा.

सोमवार, 30 अप्रैल 2012

शब्द ब्रह्म

                                             ब्रह्म संस्कृत शब्द है. जिसका लेटीन रूपान्तर ब्रेन Brain हैं.शब्द जब आपकी श्रवण ज्ञानेन्द्रि से ब्रेन में पहूँचता है तो आपके ब्रेन का सत्व उसे स्मृति के रूप में ग्रहण कर के संग्रह कर लेता है जिसे आप जानकारियाँ कहते है                                                                                                                                                              
        जब आप का ब्रह्म रज के प्रभाव में होता है तो आप आवेशित होकर सक्रिय हो जाते है .
       तम के प्रभाव से आप भ्रमित हो जाते हैं .
       शब्द ही है जो आप के ब्रह्म(चेतना) को प्रभावित करता है ."मैं ब्रह्म हूँ" अर्थात ब्रह्म एक वचन होता है क्योंकि सबका अपना अपना विशिष्ठ होता है.
      जब सभीका ब्रह्म सम हो कर "हम" का रूप ले लेता है तो समाज बन जाता है.
       तब परस्पर सम्वाद के माध्यम से शब्द ही सब के ब्रह्म को आपस में जोड़ता है.
       मैं नारदीय परम्परा यानि स्वतंत्र सामाजिक पत्रकारिता परम्परा का वाहक हूँ.आप सामाजिक प्राणी हैं अतः आप की नीयत समाज में रहने की होने से आपकी नियति है कि आप को समाज में रहना है.
       लेकिन जब आपके ब्रह्म आपस में मिलते भी नहीं है और संवाद भी नहीं होता तो विषमता आ जाती है .इससें भी बुरी  स्थिति तब बनती है जब संवाद तो होता है लेकिन अप्रिय शब्दों  के साथ होता  है.तब आपस में मैं-मैं, हम-हम और हम-तुम होने लग जाता है.
      इन विषमताओं को बढ़ाने और कम करने कराने में आपका ब्रह्म और आपके शब्द ही मूल कारण होते हैं.
विषमताओं में भी सम रहने का एक मात्र तरीका है ब्रह्म को समझना.लेकिन जब या तो आप शब्द का अर्थ जानते हूए भी उसका उपयोग ही विषमता फ़ैलाने के लिए करते हैं या फिर आप शब्द का अर्थ नहीं जान कर भी या शब्द का गलत/खोटा अर्थ जान कर भी उसे सही अर्थ समझने लग जाते हैं.तब भी विषमता फैलती है .
         आज का सम आज का समाज है लेकिन आजके वर्तमान में भी हम पूर्व में स्थापित मान्यताओं पर  चलते हैं  तो हमें मान्यता प्राप्त शब्दों का अर्थ तो पता होना ही चाहिए
       अतः अपन  आपस की सामाजिक बातें शुरू करने से पहले शब्द-ब्रह्म को अच्छी तरह समझने से शुरू करें .       इसी तरह आपके मुख से निकले हुए शब्द ही आपके ब्रह्म को व्यक्त करते हैं.अव्यक्त ब्रह्म आपके मन-बुद्धि -अहंकार के रूप में व्यक्त होता है. आप को चाहिए कि आप अपने आप को जानने के लिए अपने मन-बुद्धि-अहंकार को समझने का प्रयास करें. लेकिन होता क्या है कि आप अपने आप को जानें इससे पहले ही लोग आपको जान जाते हैं कि आप किस खेत कि मुली हैं.क्योंकि आपके मुखसे निकले शब्द आपके मन-बुद्धि-अहंकार को दूसरों के सामने अभिव्यक्त कर देते हैं.
         आज आपके भारत की राजनीति में जो लोग हैं उनमे अधिकाँश लोग यह सोचते हैं कि वे विपक्षी दल की पोल खोल रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि वो जी तरह की भाषा का उपयोग करते है उससे उनके ब्रह्म / ब्रेन की पोल खुलती है.
         आप जब अपने व्यक्तित्व का विकास करने के लिए उत्साहित रहते है तो दूसरो के गुणों को अपने व्यक्तित्व में जोड़ने की चेष्टा करते हैं.इस तरह पहले से ही विद्यमान आपके अपने गुणों में कुछ और गुणों का योग हो जाता है और आपकी योग्यता में वृद्धि हो जाती है.लेकिन जब आप इस योग्य नहीं होते हैं कि अपनी योग्यता में कुछ और गुणों का योग कर सकें तो आप अपने आपको प्रतिपक्षी से अधिक योग्य साबित करने के स्थान पर प्रति पक्षी को अयोग्य साबित करने के लिए उसकी आलोचना कर देते हैं,यहीं से आपकी पोलपट्टी चौड़े आ जाती है.आज की राजनीति में यही हो रहा है.चूँकि व्यक्तिगत आलोचना तो कर नहीं सकते अतः प्रतिपक्षी दलों की या दल की आलोचना कर देते हैं.इसी तरह अपनी अयोग्यता को छिपाने के लिए अपने दल की आड़ भी ले लेते है. तो क्यों नहीं आप अपने क्षेत्र में अपना प्रतिनिधि चुने जो आपका अपना हो न कि किसी दल का प्रतिनिधि मात्र हो .   
                                                           मज़ेदार  उदाहरण : 
जब पड़ोस में नया परिवार आकर रुका तो वह बड़ी खुश हुयी और पहुच गई झगडा जड़(शब्द ब्रह्म )को  लेकर और नई पड़ोसन से बोली "आ ऐ डाव्ड़ी /सहेली लड़ाई करें "
पड़ोसन बोली "लड़े मेरी जूती"
वह बोली "जूती मार अपने खसम के माथे पर" 
पड़ोसन बोली "मैं क्यों मारूं तू मार"
वह बोली "मैं मार दूंगी,बता तेरी जूती कहाँ पड़ी है और तेरा खसम कब आएगा "
             तो लो साहब शब्द बाण चलने शुरू हो गए और आहत करने लग गये एक दूसरे के ब्रह्म को .