विश्व में भाषाओं की दो धारायें हैं।
एक है साहित्य,बोलचाल,भावों के आदान-प्रदान की भाषा। यह शैली प्राकृत परम्परा की भाषा शैली से प्रारम्भ होकर अन्ततः ब्रह्म परम्परा की भाषा तक पहुँच कर यह अपने विकास की अन्तिम पराकाष्ठा तक पहुँचती है। इस भाषा में शब्दों के भावों का महत्व होता है। इस वर्ग में पशु-पक्षियों की भाषा से लेकर शरीर की गतिविधि तक यानी Body Language तक आ जाती है। जिसका उद्देश्य होता है भावाभिव्यक्ति (भाव अभिव्यक्ति)। इस वर्ग की भाषा का विकास जब अन्तिम स्तर तक पहूंचता है तो सिर्फ़ शब्द ब्रह्म का उपयोग होता है, व्याकरण गौण हो जाती है। अतः शब्द भण्डार विशाल होता है।
दूसरा वर्ग है धर्म एवं विज्ञान की शब्दावली की भाषा। जिसे वेद परम्परा की भाषा कहा जाता है। इस भाषा के शब्दकोष के मूल में कुछ गिनती के धातु रूप होते हैं उन्हीं से वैज्ञानिक नियमों के अनुसार शब्दों की रचना होती है। इस वैज्ञानिक शब्दावली अर्थात् धर्म एवं विज्ञान की शब्दावली में प्रत्येक शब्द के तीन स्तर पर अनेक अर्थ बनते हैं।
1. शब्दार्थ:- महेश्वर सूत्र के अनुसार प्रत्येक शब्द का एक ही सुनिश्चित शब्दार्थ होता है, अनेक पर्यायवाची या पूरक शब्द नहीं होते हैं। धार्मिक प्रवचकों और वैज्ञानिकों के के लिए शब्द का शब्दार्थ जानना आवश्यक होता है।
2. तत्वार्थ (तात्पर्य):- प्रत्येक वैदिक शब्द के तीन तात्पर्य होते हैं।
1. आध्यात्मिक - मनोवैज्ञानिक यानी मानव के स्वभाव को परिलक्षित करने वाले तात्पर्य।
2. आधिदैविक-जीव के शरीर के परिप्रेक्ष्य में शरीर विज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले तात्पर्य।
3. आधिभौतिक - भौतिक देह और उससे जुड़े भौतिक जगत यानी समाज विज्ञान से जुड़े तात्पर्य।
3. भावार्थ:- भावार्थ को अभिप्राय भी कहते हैं। किसी शब्द के भावार्थों की कोई सुनिश्चित संख्या नहीं होती । जितने दिमाग़ उतने भावार्थ ।
इस तरह धातु रूपों से बने वैदिक संस्कृत शब्दकोष के मूल शब्द तो मुश्किल से चार-पाँच सौ ही होंगे लेकिन इनके एक-एक सुनिश्चित शब्दार्थ और तीन-तीन सुनिश्चित तत्वार्थ और अनगिनत अनिश्चित भावार्थ होते हैं।
ब्राह्मणी भाषा एवं प्राकृत भाषाओं को संस्कारित करके विकसित की गई, भाषा विज्ञान के नियमों (सूत्रों) में बँधी भाषा है ‘‘संस्कृत‘‘। लेकिन जब शब्द का उच्चारण नियमानुसार नहीं होता तो वह शब्द अपभ्रंश कहलाता है।
इस तरह शब्द की चार श्रेणियाँ हो गईं। (1) ब्राह्मणी भाषा के शब्द (2) प्राकृत भाषाओं के शब्द (3) इनसे विकसित हुई धर्म एवं विज्ञान की भाषा संस्कृत के शब्द (4) ज्ञान-विज्ञान के विस्तार का माध्यम बन कर जब ये शब्द विश्व में फैले तो उच्चारण दोष के कारण विकसित हुए अनेक अपभ्रंश शब्द ।
इसी तरह जानने की दो धारायें समानान्तर चलती हैं एक धारा को ब्रह्म परम्परा एवं दूसरी धारा को वेद परम्परा कहा गया है। ब्रह्म से ब्रेन शब्द बना और वेद से बॉडी शब्द बना है। इसी तरह शास्त्र से सेन्स और साईन्स दो शब्द बने हैं। तात्पर्य है कि सेन्स और साईन्स की दोनों परम्पराओं को ही ज्ञान एवं विज्ञान की परम्परायें कहा गया है। इन्हीं को धर्म और विज्ञान कहा गया है।
शब्दों के शब्दार्थ, तत्वार्थ और भावार्थ को क्रमशः शब्द-विज्ञान, धर्म एवं विज्ञान तथा साहित्य की शब्दावली भी कह सकते हैं।
लेकिन इस नियमों में बँधे शब्दों से अलग एक अर्थ होता है जिसे मन्तव्य कहते हैं। ब्राह्मण परम्परा कहती है कि भावना को अभिव्यक्त करने के परिप्रेक्ष्य में शब्दार्थ, तत्वार्थ और भावार्थ तीनों स्तर के अर्थ गौण होते हैं। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कहने वाले का मन्तव्य क्या है! इसको जानना ही पर्याप्त होता है बाक़ी सब शब्दों का आडम्बर है। जबकि वेद परम्परा कहती है कि शब्दों के सही-सही अर्थ जाने बिना यथा-अर्थ (यथार्थ) को समझने में चूक हो सकती है और व्यक्ति ज्ञान के स्थान पर भ्रामक अवधारणाओं में चला जाता है।
दोनों परम्पराएँ अपने अपने पक्ष में सही है इनमे विरोधाभास नहीं है बल्कि दोनों मिलकर पूर्णता देती हैं।
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