ब्रह्म सत्यं जगंमित्थ्या:- नीयत से ही नीयति तय होती है ।
एक समय था, जो इस तथाकथित आजादी से पूर्व तक भी अवशेष रूप में था, तब अध्यापक-समाज सभी समाजों और सामाजिक कार्यों का नैतृत्व करता था,लेकिन आज जब अध्यापक समाज भी वेतन- भोगी कर्मचारी बन कर नोकर,गुलाम,पैसे का लोभी दीन-हीन-कृपण बन गया और बाकी सभी समाज भी स्वान प्रवृति से ग्रसित होकर एक दूसरे समाज पर गुर्राने- चिल्लाने-भौंकने से बाज नहीं आ रहे हैं और जिनको परम्परागत समाज से मोह नहीं रहा वे नए नए समाज बना कर इस स्वान-कर्म को अंजाम दे रहे हैं तब इस समय अब आपका विद्यार्थी-समाज ही एक मात्र ऐसा समाज बचा है अतः आप से अपेक्षा है कि आप सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त हो कर, अपना भविष्य स्वयं बनाने के लिए आगे आयेंगे ।
वैचारिक स्तर पर तो आप से अपेक्षा करताहूँ कि आप प्रिण्ट मीडिया और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के माध्यम से वार्तायें और चर्चाये शुरू करें तथा धरातल के स्तर अर्थात् प्रेक्टिकल स्तर पर आप प्रत्येक छोटे-छोटे क्षेत्र में प्रबुद्ध वर्ग का एक समूह बनायें और फिर एक ऐसे व्यक्ति की खोज करें जो तहसील स्तर अर्थात् विधायक के स्तर के व्यक्ति हों। उसे आप निर्दलीय के रूप में खड़ा करें और चुनें ताकि वह आपका और आप के क्षेत्र का जनप्रतिनिधि बन सके। जबकि अभी जो भी नेता हैं वे आपके जन प्रतिनिधि नहीं है और ना ही वे आगे जाकर राष्ट्र के प्रतिनिधि बनते है बल्कि वे तो मात्र अपनी पार्टी के द्वारा थोपे हुए पार्टी प्रतिनिधि होते हैं। अनेक लोग इससे भी नीचे गिर जाते हैं और पार्टी में भी सिर्फ अपनी लॉबी के समर्थक होते हैं ।
यह प्रतिनिधि आपके क्षेत्र का स्थाई निवासी पहले से हो या अब स्थाई बन गया हो। आप अपने प्रतिनिधि के प्रति दो विरोधाभाषी अधिकार रखेंगे ।
1.एक तो यह कि आप उन्हें आजीवन के लिए चुन रहे है और 2.दूसरा यह कि यदि वे आपकी अपेक्षाओं पर खरा न उतरें तो उन्हे पांच वर्ष तक ढोने की आवश्यकता नहीं है। तुरन्त त्याग पत्र देने के लिए मजबूर कर सकें ।
वर्तमान का ढ़ांचा भारतीयों का स्वयं का बनाया हुआ नहीं है बल्कि ब्रिटिस सरकार से गोद लिया हुआ दत्तकपुत्र है। इस ढांचे में यानी व्यवस्था पद्धति में भ्रष्टाचार मुक्त समाज की कल्पना तक नहीं की जा सकती जबकि संसद के निर्दलीय हुए बिना सर्वसम्मति की कल्पना नहीं की जा सकती क्यों कि भारतीय राजनीति में अकर्म को कर्म कह कर उसका श्रेय लेने की संस्कृति विकसित हो गई है ।
इसके लिए ना तो सरकार से सहायता की याचना करनी है और ना ही न्यायालय में याचक बन कर याचिका दायर करनी हैं और ना ही किसी संस्था या राजनैतिक या अन्य प्रकार का Organization, संस्था, पार्टी इत्यादि रजिस्टर्ड कराना है बल्कि स्व-अधीन होकर स्व-विवेक से स्व का तंत्र बनाना है ।
आपके आन्दोलन में पदों पर अधिकार जमाने वाले पदाधिकारी नहीं बल्कि सम्मानित एवं आदरणीय लोग होने चाहिए। उनमें एक ऐसी बड्डपन की प्रवृति होनी चाहिये कि खुद के किये हुए कार्य का श्रेय भी सभी सहयोगीयों को दें। यह तभी सम्भव होगा जब आप पदाधिकारी परम्परा वाली संस्था के मोह से मुक्त होंगे .
क्या? आपका तुच्छ अहंकार यह स्वीकार कर लेगा कि ये तथ्य सिद्ध बातें उचित एवं हितकारी है अतः हमें सुझाव स्वीकार कर लेना चाहिये । शायद आप न कर पायें यही शंका है ।
लेकिन मेरा धर्म है प्रयास करना होना न होना यह उस उपर वाले पर निर्भर है जो हमारी उर्धमूलाकार शारीरिक सरंचना में ब्रह्म (ब्रेन) के रूप में हमारे उपर प्रभुत्व जमाये बैठा है । क्योंकि ब्रह्म ही सत्य है जो आपके अहंकार,जो कि आपकी आत्मा,आपके आत्म का प्रतिनिधि है,उस अहंकार के स्तर को विशाल कर सकता है.यदि आप का अहंकार परस्पर टकाराकर तुच्छ [कमजोर] नहीं पड़ेगा तो आप इन राष्ट्रों और साम्प्रदायिक धर्मो के नाम पर बनाये गये हमारे स्वअनुष्ठित धर्मो, स्वयं द्वारा बनाये गये बनावटी सांप्रदायिक धर्मो को वर्तमान की परिस्थितियों के अनुरूप पुनः नया रूप दे सकते हैं।ये स्वअनुष्ठित धर्म सनातन धर्म नहीं है जो कि अपरिवर्तनीय होता है।
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