उत्तिष्ठ-भारत !
(भारतीयों ! उठो)सभी माननीय भारतीयों!
जय भारत ! इस ब्लॉग-श्रृंखला के माध्यम (ज़रिये) से मैं भारतीय मतदाताओं के साथ-साथ आप सभी से मिलना चाहता हूँ जो राष्ट्र नामक संस्था के हित में कर्ता-धर्ता हैं ।
1. औपचारिक Official,:- जो लोग नियमानुसार क़ायदे-कानून से संवैधानिक व्यवस्था के भाग हैं यानी कार्यपालिका, विधायिका और न्याय पालिका तथा गै़र सरकारी संगठन भी ।
2. अनोपचारिक Unofficial,:- जो लोग नैतिक कर्तव्य, ज़िम्मेदारी समझ कर अपना धर्म समझकर राष्ट्र हित में सक्रिय हैं ।
आप सभी समाज के प्रतिष्ठित, असाधारण प्रतिभाओं वाले विशिष्ट वर्गों के लोग हैं, आप भारत के सर्वसाधारण वर्ग के हित में अनेक प्रकार से बहुत-कुछ या थोड़ा-बहुत करते ही रहते हैं । आप ऊँचे लोग हैं जिनसे मिलने के लिए पहुँच चाहिये । आपसे हर कोई तो मिल ही नहीं सकता है । ऐसी स्थिति में मैं आपसे मिलने की बात कह कर दुस्साहस कर रहा हूँ यह मुझे अच्छी तरह पता है । क्योंकि मुझे यह पता है कि मैं साधारण हूँ ।
यदि कोई साधारण व्यक्ति दुर्भाग्य से स्वाभिमानी भी होता है तो वह तो आप से मिलने की सोच ही नहीं सकता क्योंकि उसे आप तक पहुँचने से पहले अनेक बार अपनी हैसियत,अपनी औकात का आंकलन (माप-तोल) करना पड़ सकता है । अब यदि इस स्थिति से भी समझौता कर-कराके आप तक पहुँच भी जायें तो आप लोगों के पास पूरी बात सुनने का समय नहीं होता अतः आप तक पहुँचने के लिए किया गया श्रम निरर्थक चला जाता है ।
अब जब आपसे मैं इस वेबसाइट के माध्यम से मिलकर अपनी बात कह रहा हूँ तो यहाँ मुझ साधारण का स्वाभिमान भी बना रह जायेगा और मैं आराम से सहजता से अपनी बात कहीं विस्तार से तो कहीं संक्षेप में कह सकता हूँ ।
अतः आप सभी भारतीय या तो मेरी बात अच्छी तरह सुनें वर्ना.........
सर्वविदित हास्य है जो आपने भी सुन रखा होगा । दुबारा सुनने में भी हर्ज़ नहीं है ।पति:-मेरे कपड़े तुरन्त धो देना वर्ना ...........
खाना अच्छा बनाना वर्ना..........
जुतों के पॉलिश कर देना वर्ना...........
धमकी सुन-सुन कर पत्नी परेशान हो गई । एक दिन सर्दियों की सुबह-सुबह................
पतिः- पानी गर्म कर देना वर्ना .............
पत्नीः- वर्ना क्या ....... वर्ना क्या कर लोगे ?
पतिः- (धीरे से) वर्ना ठण्डे पानी से नहा लूँगा !
अतः मैं भी आपसे कहता हूँ कि मेरी भावनाओं को समझें वर्ना ...............
जब भी कोई साधारण व्यक्ति किसी से मिलता है तो उसके सामने सबसे बड़ी समस्या यह आती है कि उसे अपना परिचय देना पड़ता है । आप लोगों के सामने अपना परिचय देते हुए उसे शर्मिन्दगी होती है यही स्थिति मेरी भी है ।
आप बड़े-बड़े प्रतिष्ठित लोगों के सामने मुझे भी अपना परिचय देते हुए संकोच हो रहा है । अतः मैं यह कह रहा हूँ कि मेरा नाम, मेरी वय, मेरी डिग्री, मैं किस जाति, क्षेत्र, परिवार में पैदा हुआ ये सभी बातें इतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं । यह परिचय तो मैं अपनी बात कहते-कहते देता रह सकता हूँ । अभी जिस काल-खण्ड और जिस परिस्थिति में मैं जो तथ्य बताना चाहता हूँ और जो कहना चाहता हूँ उसका मन्तव्य क्या है ? यह जानना अधिक महत्वपूर्ण है ।
इसके अलावा, जो दूसरा कारण है उसे मैं पुनः दोहरा देता हूँ कि व्यक्ति चाहे कितना ही साधारण हो वह किसी न किसी वर्ग में वर्गीकृत तो होता ही है और वह अपने उस वर्ग-विशेष के विशेष दृष्टिकोण से तथ्य को देखता है ।
उदाहरण के लिए अभी-अभी एक मुद्दा खड़ा हुआ है जिसे भ्रष्टाचार के विरूद्ध में लोकपाल विधेयक का अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में चलने वाला शुरूआती आन्दोलन कह सकते हैं । उसमें जो अग्रणी हैं, वे आप लोग संविधान के जानकार विशिष्ट लोग हैं। आपका एक विशेष दृष्टिकोण है और आपने भ्रष्टाचार नामक विशिष्ट विषय में रिश्वत नामक विशिष्ट विषय का मुद्दा उठाया है ।
आपके प्रतिपक्ष में भी विशिष्ट लोग है जो अपनी-अपनी विशिष्ट प्रतिक्रियाऐं दे रहे हैं जिसमें समर्थन भी है तो शंका भी है । कहीं कहीं तो आशंका भी है कि कहीं ये मुद्दा सफल नहीं हो जाये लेकिन अधिकांशतः यही विचारधारा है कि भ्रष्टाचार समाप्त होना असम्भव है ।
मेरा भी यही कहना है । क्यों ?
क्योंकि मैं भी एक साधारण भारतीय हूँ। अतः भ्रष्टाचार और प्रशासनिक व्यवस्था पद्धति दोनों की रग-रग से वाकिफ़ हूँ अतः जानता हूँ कि आप जिस विशिष्ट पद्धति से भ्रष्टाचार मिटाना चाहते हैं उसमें विशिष्ट तरीक़े से छेद करना सभी को आता है ।
भ्रष्टाचार के अनेक आयाम हैं । एक व्यक्ति यदि धन-राशि नहीं लेकर अपने परिजन, परिचित, पारिवारिक व्यक्ति को आत्मीयता से लाभ देता है तब भी वह भ्रष्टाचार माना जायेगा । तब फिर भारतीय संस्कृति की आत्मीयता और मानवता का क्या होगा ? उस बिन्दु पर एक समाज-वैज्ञानिक कहेगा, भारतीयों में पहले जैसा आपसी सहयोग और सहृदयता नहीं रही।
इस तरह यह एक विरोधाभासी स्थिति बन जाती है। ऐसा ही विरोधाभास सभी समस्याओं के प्रति है।चाहे उद्योग और वाणिज्य व्यापार में लेलें या धर्म के धन्धे में लेलें,भ्रष्टाचार कहाँ नहीं है लेकिन चूँकि आप विशिष्ट लोग सिर्फ शासन-प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार में भी सिर्फ पूंजी के आदान-प्रदान को ही भ्रष्टाचार मान रहे हैं क्योंकि आपका साबका [दुखद सामना] उसी भ्रष्टाचार से पड़ा है अतः आपका मंतव्य तो उचित है लेकिन यह तरीका समस्या का समाधान नहीं कर सकता.
एक विशिष्ट व्यक्ति हमेशा समस्या को विशिष्ट कोण से देखता है क्योंकि वह उस विषय का विशेषज्ञ होता है जबकि साधारण व्यक्ति यदि संवेदनशील होता है तो वह विषय में बँधा हुआ नहीं होता अतः वह उसे समग्र दृष्टिकोण से देखता है। लेकिन विडम्बना यह है कि आज कोई भी व्यक्ति साधारण नहीं रहा। सभी लोग अपने-अपने वर्ग में स्व-अनुष्ठित धर्म और स्व-निर्धारित अर्थ को स्थापित करने में लगे रहने वाले विशिष्ट हो गये हैं। अतः सही बात तो यह है कि मैं जन साधारण में आने वाला व्यक्ति अपना परिचय देने लायक रहा ही नहीं। लेकिन चुंकि जनसाधारण होने के नाते मैंने भारत की प्रत्येक समस्या का समग्र दृष्टिकोण से अध्ययन किया तो पाया कि सभी समस्याऐं एक दूसरे से जुड़ी हैं और इनका केन्द्र हैं हमारे दिमाग़ जो कि अलग-अलग हैं। आप सच में ईमानदारी से भ्रष्टाचार मुक्त भारत चाहते हैं तो कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि मेरे द्वारा कही जा रही बातों का मंतव्य समझें, यह महत्वपूर्ण है।
मैं विशिष्ट अथवा असाधारण नहीं हूँ अतः मेरा परिचय महत्वपूर्ण नहीं है। फिर भी मैं अपना परिचय बातों-बातों में देता रहूँगा लेकिन जब महत्वहीन क्रिया यदि किसी बड़ी क्रिया के बीच-बीच में अवरोध पैदा करे तो वह महत्वहीन छोटी क्रिया, बड़ी क्रिया में नकारात्मक भाव से महत्वपूर्ण हो जाती है ।
एक चम्मच दही जब अनुकूल परिस्थिति में पाँच लीटर दूध को जमाकर दही बनाता है तो उस द्रव्य का भाव बढ़ जाता है जबकि वही एक चम्मच दही प्रतिकूल परिस्थिति में दूध को फाड़ कर उसकी पौष्टिकता को नाकारा बना देता है। यहाँ तक की वह फटा हुआ दूध, नुकसान बचाने के लालच में खा लिया जाये तो कभी-कभी जानलेवा भी हो सकता है।
अतः जब अनुकूल परिस्थिति आयेगी तब मैं अपनी परियोजना को जमाने के लिए ‘‘जामण‘‘ का काम करने के लिए सामने आ जाऊँगा। लेकिन अभी दूध कच्चा है। आप तो पहले से जानते हैं कि कच्चे दूध में दही का ‘‘जामण‘‘ लगा कर दूध को गर्म करना अविद्या मानी जायेगी।
अभी तो दूध गर्म करना है, फिर ठण्डा करना है, फिर इसमें जामण लगेगा।
इस प्रतिकात्मक भाषा को स्पष्ट करूँ तो यह है कि अभी मैं यदि किसी से मिला तो निःसन्देह मिलने वाला व्यक्ति अथवा समूह किसी न किसी वर्ग विशेष का होगा, परिणामस्वरूप कोई अन्य विशिष्ट वर्ग, फ़िक्सिंग का आरोप लगा सकता है क्योंकि यह ब्लॉग श्रृखला विश्व से पहले भारत की आर्थिक, बौद्धिक तथा राजकीय तीनों समस्याओं को आपस में सन्तुलित करने के लिए माध्यम के रूप में, मीडिया के रूप में ‘‘नारदीय परम्परा (स्वतन्त्र पत्रकारिता की परम्परा)‘‘ के रूप में उपयोग की जायेगी।
अतः आपसे यह अनुरोध क्षमा-याचना सहित कर रहा हूँ कि अपनी मानसिक ऊर्जा इस बिन्दु पर लगायें कि ‘समझें तो सही कि यह व्यक्ति आखिर कहना क्या चाहता है'। साथ ही साथ यह भी अनुरोध है कि इस ब्लॉग को प्रचारित प्रसारित करें, इसे एक वैचारिक-आन्दोलन का रूप दें।
तीसरा एक कारण यह भी है कि मैं आत्म-केन्द्रित और संकोची व्यक्ति हूँ। बचपन से लेकर आज तक मैं जहाँ कहीं भी रहा, दो-चार लोगों तक ही मिलना जुलना रहता था। वे दो-चार लोग भी अलग-अलग वर्गों में से एक-एक व्यक्ति के रूप में होते थे। वर्ग विशेष के एक व्यक्ति के माध्यम से पूरे वर्ग से मेरा परिचय हो जाता। मैं बहुत सारे लोगों से एक साथ मिलने में असमर्थ भले ही न होऊँ लेकिन असहज महसूस करता हूँ ।
अतः आप मेरे परिचय के रूप में यही समझें जो कि व्यावहारिक बुद्धि वाले अनेक लोगों ने एक वाक्य कहा जिसमें दो अलग-आचरण को महत्व दिया मुझ में वे दोनों आचरण एक साथ हैं। वाक्य है:-
(अ) जिसे पढ़ने में रूचि होती है वह व्यक्ति कभी भी अकेलापन महसूस नहीं करता।
(आ) जिसे बागवानी में रूचि होती है वह व्यक्ति कभी भी अकेलापन महसूस नहीं करता ।
मेरा कहना है:- ‘‘जो व्यक्ति एकान्त में पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों के बीच में रहते हुए अध्ययन तथा चिन्तन-मनन करने का अभ्यस्त होता है, उसके मस्तिष्क में अमृत (हारमोन्स) का स्त्राव होता है अतः वह अपने जीवन में जो आनन्द लेता है वह आनन्द अतुलनीय है ।‘‘
अतः मैं सभी भारतीयों से यह अनुरोध कर रहा हूँ कि यदि आप मेरे एकान्त में अध्ययन-चिन्तन-मनन के रूप में किये गये दार्शनिक-कर्म का लाभ तथा न्यूनतम संसाधनों से, (न्यूनतम जल से, न्यूनतम क्षेत्र पर, न्यूनतम समय में, न्यूनतम परिश्रम से) अधिकतम उपज देने वाली एक सिंचाई पद्धति पर लम्बे समय से शोध और अनुसंधान के रूप में किये गये वैज्ञानिक-कर्म का लाभ, व्यक्तिगत-पारिवारिक-सामाजिक-राष्ट्रीय- मानवीय तथा जीव मात्र के हित में करने के लिए उत्सुक होते हैं तब तो मेरे परिचय का अर्थ है, वर्ना.......
जिस काम से लाभ की बजाय हानि हो, वह काम क्यों करना ? मेरे परिचय से लाभ कुछ नहीं होना है। हाँ ! हानि अवश्य हो जायेगी ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें