1 शब्द ब्रह्म
ब्रह्म संस्कृत शब्द है. जिसका लेटिन रूपान्तर ब्रेन Brain है. शब्द जब आपकी श्रवण ज्ञानेंद्री से ब्रेन में पहुँचता है तो आपके ब्रेन का सत्व उसे स्मृति के रूप में ग्रहण कर के संग्रह कर लेता है जिसे आपजानकारियाँ कहते हैं. जब आप का ब्रह्म रज के प्रभाव में होता है तो आप आवेशित होकर सक्रिय हो जाते हैं.
तम के प्रभाव से आप भ्रमित हो जाते हैं .
शब्द ही है जो आप के ब्रह्म(चेतना) को प्रभावित करता है ."मैं ब्रह्म हूँ" अर्थात ब्रह्म एकवचन होता है क्योंकि यह सबका अपना-अपना विशिष्ठ होता है.
जब सभी का ब्रह्म सम हो कर "हम" का रूप ले लेता है तो समाज बन जाता है.
तब परस्पर सम्वाद के माध्यम से शब्द ही सब के ब्रह्म को आपस में जोड़ता है.
मैं नारदीय परम्परा यानी स्वतंत्र सामाजिक पत्रकारिता परम्परा का वाहक हूँ. आप सामाजिक प्राणी हैं अतः आप की नीयत समाज में रहने की होने से आपकी नियति है कि आप को समाज में रहना है.
लेकिन जब आपके ब्रह्म आपस में मिलते भी नहीं है और संवाद भी नहीं होता तो विषमता आ जाती है. इससें भी बुरी स्थिति तब बनती है जब संवाद तो होता है लेकिन अप्रिय शब्दों के साथ होता है. तब आपस में मैं-मैं, हम-हम और हम-तुम होने लग जाता है.
इन विषमताओं को बढ़ाने और कम करने-कराने में आपका ब्रह्म और आपके शब्द ही मूल कारण होते हैं.
विषमताओं में भी सम रहने का एक मात्र तरीक़ा है ब्रह्म को समझना. लेकिन जब या तो आप शब्द का अर्थ जानते हूए भी उसका उपयोग ही विषमता फैलाने के लिए करते हैं या फिर आप शब्द का अर्थ नहीं जान कर भी या शब्द का ग़लत/खोटा अर्थ जान कर भी उसे सही अर्थ समझने लग जाते हैं. तब भी विषमता फैलती है .
आज का सम आज का समाज है लेकिन आज के वर्तमान में भी हम पूर्व में स्थापित मान्यताओं पर चलते हैं तो हमें मान्यता प्राप्त शब्दों का अर्थ तो पता होना ही चाहिए.
अतः अपन आपस की सामाजिक बातें शुरू करने से पहले शब्द-ब्रह्म को अच्छी तरह समझने से शुरू करें. इसी तरह आपके मुख से निकले हुए शब्द ही आपके ब्रह्म को व्यक्त करते हैं. अव्यक्त ब्रह्म आपके मन-बुद्धि -अहंकार के रूप में व्यक्त होता है. आप को चाहिए कि आप अपने आप को जानने के लिए अपने मन-बुद्धि-अहंकार को समझने का प्रयास करें. लेकिन होता क्या है कि आप अपने आप को जानें इससे पहले ही लोग आपको जान जाते हैं कि आप किस खेत की मूली हैं. क्योंकि आपके मुख से निकले शब्द आपके मन-बुद्धि-अहंकार को दूसरों के सामने अभिव्यक्त कर देते हैं.
आज आपके भारत की राजनीति में जो लोग हैं उनमे अधिकाँश लोग यह सोचते हैं कि वे विपक्षी दल की पोल खोल रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि वो जिस तरह की भाषा का उपयोग करते है उससे उनके ब्रह्म / ब्रेन की पोल खुलती है.
आप जब अपने व्यक्तित्व का विकास करने के लिए उत्साहित रहते है तो दूसरों के गुणों को अपने व्यक्तित्व में जोड़ने की चेष्टा करते हैं. इस तरह पहले से ही विद्यमान आपके अपने गुणों में कुछ और गुणों का योग हो जाता है और आपकी योग्यता में वृद्धि हो जाती है.
लेकिन जब आप इस योग्य नहीं होते हैं कि अपनी योग्यता में कुछ और गुणों का योग कर सकें तो आप अपने आपको प्रतिपक्षी से अधिक योग्य साबित करने के स्थान पर प्रतिपक्षी को अयोग्य साबित करने के लिए उसकी आलोचना कर देते हैं,यहीं से आपकी पोलपट्टी चौड़े आ जाती है.
आज की राजनीति में यही हो रहा है. चूँकि व्यक्तिगत आलोचना तो कर नहीं सकते अतः प्रतिपक्षी दलों की या दल की आलोचना कर देते हैं. इसी तरह अपनी अयोग्यता को छिपाने के लिए अपने दल की आड़ भी ले लेते है. तो क्यों नहीं आप अपने क्षेत्र में अपना प्रतिनिधि चुनें जो आपका अपना हो, न कि किसी दल का प्रतिनिधि मात्र हो .
{ विशेष :-गीता में एक शब्द है अक्रोध जिसका अर्थ होता है क्रोध के विपरीत यानी अपने आवेश को हास्य-व्यंग्य, हँसी-मज़ाक,व्यंगात्मक शैली में हँसकर कहना ताकि गंभीर वार्ता के तनाव को बीच-बीच कम किया जा सके. इस मनोवाज्ञानिक तथ्य को मद्देनज़र रख कर नाटकों में, फ़िल्मों में विदूषक के चरित्र भी लिए जाते रहे हैं. नाटकों के विषय में एक तथ्य बताना प्रासंगिक होगा कि नाटक कंपनियों के संचालक जो कि निर्देशक, निवेशक, संवाद लेखक और दर्शकों की नब्ज पकड़ने वाले मनोवैज्ञानिक भी होते थे या हैं, वे अन्य सभी भूमिकाओं के लिए संवाद रटने वाले कलाकार रखते थे लेकिन विदूषक की भूमिका ख़ुद निभाते थे. विदूषक का स्त्रीलिंग शब्द विदुषी होता है जो विद्वान महिला के लिए काम में लिया जाता है जबकि विदूषक शब्द कान में पड़ते ही ........!
लेकिन सच्चाई यह है कि जो गंभीर बात मज़ाक-मज़ाक में कह दी जाती है तो एक गंभीर,संजीदा व्यक्ति को अधिक प्रभावित करती है। इसी तरह देवासुर संपदा विभाग योग में आसुरी संपदा वाले व्यक्ति की अनेक पहचानों में एक पहचान यह भी है कि वह हमेशा दर्प में रहता है. यहाँ परिपूर्ण परिवर्तन का जो मुद्दा उठाया गया है वह वर्त्तमान समय का गंभीरतम मुद्दा है लेकिन इस लक्ष्य को आनंद में दोलन करते-करते हासिल करना है अतः बीच-बीच में अक्रोध की भाषा में भी कुछ-कुछ होता रहे तो क्या हानि है।}
एक अक्रोध सुनें
जब पड़ोस में नया परिवार आकर रुका तो वह बड़ी खुश हुई और पहुँच गई झगडा जड़ वाले शब्द ब्रह्म को लेकर और नई पड़ोसन से बोली "आ ए डावड़ी(सहेली) लड़ाई करें "
पड़ोसन बोली "लड़े मेरी जूती"
वह बोली "जूती मार अपने खसम के माथे पर"
पड़ोसन बोली "मैं क्यों मारूं तू मार"
वह बोली "मैं मार दूँगी,बता तेरी जूती कहाँ पड़ी है और तेरा खसम कब आएगा " तो लो साहब शब्द बाण चलने शुरू हो गए और लगे आहत करने एक दूसरे के ब्रह्म को .
2 भाषा के दो पक्ष
भाषा के दो पक्ष होते हैं एक शब्द, दूसरा व्याकरण. आपकी व्याकरण ग़लत होती है तो चल जाता है लेकिन शब्द का ग़लत अर्थ जानने से संवाद और ज्ञान दोनों अकल्याणकारी हो जाते हैं क्योंकि शब्द के अर्थ की ग़लत जानकारी अर्थ का अनर्थ कर देती है इसीलिए जब आप विज्ञान की कक्षा में प्रवेश लेते हैं तो आपका अध्यापक सबसे पहले यही कहता है कि व्याकरण ग़लत चल जाता है लेकिन वैज्ञानिक शब्द का सही अर्थ जानना ज़रूरी है अतः सबसे पहली शुरुआत यहीं से करें यानी शब्द-कोष में वृद्धि करें.
मैं नारद भी अपनी बातों में संस्कृतजन्य हिंदी शब्दों का उपयोग कर रहा हूँ उधर वेदव्यास तो और भी कठिन शब्दों का उपयोग कर रहे हैं अतः इस ब्लॉग पर एक पंथ दो काज करते हैं. शब्द-कोष का शब्दकोष और आज हमें भारत में निर्दलीय राजनीति क्यों चाहिए इसके तर्क संगत कारण भी.
एक अक्रोध सुनें
जब जाट अंग्रेज़ों की फ़ौज में भर्ती हुआ तो अंग्रेज़ी व्याकरण तो सीख गया लेकिन अंग्रेज़ी शब्दों में कुछ चक्कर रह गया .एक दिन एजुकेशन हवलदार ने आकाश की तरफ संकेत करके पूछा: "व्हाट इज़ दिस " तो जाट बोला "सर, द कबूतर इज़ फ्लाईंग इन द आकाश." और वह पास कर दिया गया .
आप यदि कहते हैं : 'कबूतर उड़ता आकाश' ,'कबूतर आकाश में उड़ता', 'कबूतर उड़ती', 'कबूतर उड़ रहे','कबूतर उड़ते' इत्यादि तो इसमें व्याकरण की अशुद्धि तो चल जाती है लेकिन यदि आप कबूतर और आकाश का अर्थ नहीं जानते तो नहीं चलेगा.
3 ब्रह्म ब्रह्मा ब्राह्मण
संस्कृत लम्बे समय तक संस्कारित हो कर विकसित हुई धर्म एवं विज्ञान यानी सेन्स और साइंस की भाषा है. संस्कृत के मूल शब्द (धातु रूप) बमुश्किल चार-पाँच सौ हैं लेकिन शब्द संरचना कुछ ऐसी होती है कि व्याकरण और शब्द की परिभाषा भी साथ में रहती है.
उधर लेटिन ईसाई समाज की धर्म एवं विज्ञान की भाषा है.
जब भारत से ज्ञान -विज्ञान फैला तो लेटिन अमरीकी देशों चिली एवं पेरू में वैदिक ज्ञान पहुँचा. चूँकि वे भौतिक-विज्ञान में रूचि रखने वाले भौतिकवादी थे अतः जब ब्रह्म का रूपांतरण ब्रेन हुआ तो तात्पर्य तंत्रिका तन्त्र/ नर्व सिस्टम के भौतिक रूप तक सीमित हो कर रह गया .
जबकि एक कोशीय जीव से लेकर विशाल वृक्षों में तंत्रिका तन्त्र नहीं होता लेकिन चेतना एवं जीवनी शक्ति तो उनमें प्राणियों से भी अधिक होती है .
इस तरह तथ्यात्मक बात यह है कि ब्रह्म शब्द के लेटिन अनुवाद ब्रेन शब्द को जाने बिना आप ब्रह्म शब्द को भ्रामक धारणा में ले जाते हैं तो ब्रह्म को ब्रेन तक सीमित करने से वैज्ञानिक वर्ग अर्धसत्य में बँध कर रह जाता है अथवा आप जब धार्मिक-वैज्ञानिक साहित्य में लिखे तथ्यों को समझने का प्रयास कर रहे होते हैं तो आपके लिए भी ब्रह्म भ्रम बनकर रह जाता है.
सबसे पहले इस विषय को लेने का कारण यह है कि एक तरफ तो यह मजबूरी है कि संस्कृत के मूल शब्दों का उपयोग किये बिना काम नहीं चल सकता तो दूसरी तरफ इन शब्दों को लेकर भ्रांतियाँ और पूर्वाग्रह स्थापित हो चुके हैं. आप मनोरंजक साहित्य और बोलचाल की भाषा में तो नए-नए शब्द गढ़ सकते हैं लेकिन जब विषय दार्शनिक-वैज्ञानिक चल रहा होता है तो मूल शब्दों के मूल शब्दार्थों को जानना पहली आवश्यकता होती है. क्योंकि तभी तर्क संगत बात कही जा सकती है वर्ना तर्क पर कुतर्क हावी हो जाते हैं. गंभीर वार्ताएं वाद-विवाद का रूप लेकर बिना परिणाम दिए ही समाप्त हो जाती हैं. जैसे कि ब्रह्म शब्द को ही लें .
अध्ययन-चिंतन-मनन करने की क्रिया को ब्रह्म में रमण करना कहा जाता है. इस क्रिया को करने वाला व्यक्ति ब्रह्मण कहलाता है, ब्रह्म + रमण में ब्रह्म के पीछे तथा रमण के आगे रम का उपयोग हो रहा है. ब्रह्म और रमण का समास होने पर रम का उच्चारण दो बार नहीं होकर एक बार ही होता है तब ब्रह्म + रमण = ब्रह्मण उच्चारित होता है. ब्रह्मण परम्परा की पालना करने वाला ब्राह्मण कहलाता है.
ब्राह्मण शब्द का प्रयोग-उपयोग अध्ययन-चिन्तन-मनन तत्पश्च्यात अध्यापन कार्य करने वाले अध्यापक के लिए किया जाता है. लेकिन जिस समय भारत में ब्रह्मण परम्परा की पालना करने वाले ब्राह्मणों (अध्यापकों) के वर्चस्व वाली व्यवस्था पद्धति चल रही थी तब हर कोई ब्राह्मण बनने का इच्छुक था जैसे कि आज हर कोई बणिया बनना चाहता है.
छठी शताब्दी में जब आचार्य शंकर के नेतृत्व में अद्वैत आन्दोलन चलाया गया था तब ब्राह्मण परंपरा और वैदिक परंपरा को एक कर दिया गया अर्थात अध्यापक और वैद्य एक हो गए. वैद्य को वैदिक ब्राह्मण के रूप में मान्यता दे दी गयी. फिर धीरे-धीरे वैदिक पुरोहित जो कि यज्ञशालाओं (देवालयों की पाकशालाओं) में भोजन पकाने का काम करते थे उन्होंने भी अपने लिए ब्राह्मण शब्द का उपयोग करना शुरू कर दिया. उस समय देवालय ही व्यवस्था के केंद्र थे, देवालय गुरुओं की गवर्नमेंट के कार्यालय थे, अतः प्रतिमाओं के पुजारी भी अपने आप को ब्राह्मण कहने लग गए. फिर भी सोलहवीं शताब्दी तक मूल रूप में अध्यापक ही ब्राह्मण कहलाते रहे. लेकिन अठारह सौ सत्तावन की घटना के बाद जब ब्रिटिश सरकार स्थापित हुई तब इंग्लेंड में बैठे आकाओं ने भारतीयों के ब्रेन (ब्राह्मणों) का वर्चस्व समाप्त करने के लिए अनेक उपाय किये. अंततः आज भारत इस स्थिति में पहुँच गया है कि ब्राह्मण शब्द अपनी प्रासंगिकता खो चुका है. आज तो यह स्थिति है कि ब्राह्मण कहने पर हर किसी का ध्यान पण्डे-पुजारियों की तरफ जाता है. यह भी संभव है कि कुछ लोगों को यह जान कर आश्चर्य हो कि ब्राह्मण का अर्थ अध्यापक होता है. फिर आज का अध्यापक यानी ब्राह्मण पद तो इतना दीन-हीन-कृपण हो गया है कि अध्ययन अध्यापन करना और समाज का ब्रेन बनना तो दूर पाठ्य पुस्तकों में लिखा ग़लत ज्ञान यानि अज्ञान भी उन्हें रट कर पढ़ाना पड़ता है।
4 शब्द ब्रह्म बनाम ब्रह्म शब्द
शब्द ब्रह्म होता है,ब्रह्म शब्द होता है. शब्द जब आपके कान में पड़ता है तो वह आपके ब्रह्म को प्रभावी करता है जबकि ब्रह्म को न जानने वाले के लिए ब्रह्म मात्र एक शब्द है. लेकिन जो ब्रह्म की परिभाषा,ब्रह्म का वैज्ञनिक स्वरूप और दार्शनिक विवेचना यानि डिज़ाइन नहीं जान कर कोई खोटा अर्थ जानता है या अपने मन से ही कोई अर्थ गढ़ लेता है तो उसके लिए ब्रह्म एक भ्रम बन जाता है.
शब्द ब्रह्म को विस्तार से जानने के लिए तो यह ब्लॉगवार्ता निरंतर चलती ही रहेगी क्योंकि इतने सारे विषय हैं और उनके बड़े-बड़े शब्दकोष हैं. व्यावहारिक-जगत से जुड़ा वैदिक विषय है अतः सब के लिए एक समान महत्व रखता है. लेकिन बिना शब्द वाले ब्रह्म का विषय आपका आत्म धर्म का विषय है. इसके विषय में जानना आप के निजी ब्रह्म की रूचि पर निर्भर है जो आप को मुनि वेदव्यास के ब्लॉग में मिलेगा. उनका नाम वेदव्यास है ही इसलिए कि वे वेदों की विस्तार से विवेचनात्मक परिपूर्ण व्याख्या कर सकते हैं.
लेकिन चार ब्रह्म सूत्र ऐसे हैं जो प्रमुख होते हुए भी सरलता से समझे जा सकते हैं.
1.ब्रह्म जगत उद्भव कारणम.
2.एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति
3.ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या .
4.अहम ब्रह्मास्मि .
अभी जो सन्दर्भ चल रहा है उसमें इतना ही जानना पर्याप्त है कि आप जिसे 'आप' कह कर उच्चारण करते हैं, वह 'आत्म' का ही हिंदी रूपांतरण है.
आप अपने आप में तीन हैं.
1..अहम = अहम ब्रह्मास्मि वाला यह निराकार अहम जब कुंठित होकर आकर ले लेता है तो वह अहंकार रूप में दूसरों के सामने व्यक्त होने लग जाता है. जबकि अहम् को तो अपने आप को जानने के माध्यम के लिए जानना चहिये .
2.आत्म =जिसका हिंदी रूपांतरण आप है. आप अपने आप को भी आप कहते हैं तो तुम के लिए आदर रूप में भी आप कहा जाता है जैसे कि मैं आपको भी आप कह रहा हूँ और जो आप को कह रहा हूँ वह मुझ पर यानी अपने आप पर भी लागू होता है.
3.स्वयं =जिसका तात्पर्य शरीर से है. जब मैं कहूँ 'आपका शरीर!', तो उसका तात्पर्य होता है आपकी आत्मा का, आप के आत्म का स्वयं का शरीर.
जब आप 'मैं' कहते हैं तो आप तीनों एक हो कर बोलते हैं.
जब अहम ब्रह्मास्मि बोलते हैं तो आप ब्रह्म के प्रतिनिधि होते हैं.
जब शिवोहम बोलते हैं तो आप 108 परमाणुओं से बने शरीर का प्रतिनिधि बन कर बोल रहे होते हैं. तब आप शम की शांति को प्राप्त करके शम्भु होते हैं.
जब स्वायम बोल रहे होते हैं तो शरीर की प्रकृति के प्रतिनिधि बन कर बोल रहे होते हैं,जो एक कालखंड को पूरा कर के यम की यान्ति को प्राप्त हो जाती है तब आपका यह स्वायम भू अधिनायक भी उसी समय भू /मिट्टी में मिल जाता है.
इस तरह जब तक आप हैं निजी तौर पर विशिष्ट हैं. आपके जैसा इस दुनिया में कोई नहीं है न कभी था न कभी होगा. साथ ही साथ यह भी जान लें कि आपके इस शरीर में ही सब कुछ है भगवान ईश्वर नामक जो भी रचना है,जो भी शक्ति है,जो भी भाव है सब शरीर के अन्दर ही है.
लेकिन आप जितने अधिक दुनियादारी में फँसते हैं यानी राग एवं द्वैष जनित प्रतिस्पर्धा में फँसते हैं तब आप जगत का एक अंश मात्र होते हैं तब आप की नीयत ही इस भीड़ की धक्का-मुक्की खाने की नियति में बदल जाती है तो इसमें दूसरा कोई क्या करेगा? इस धक्का-मुक्की में आपकी पूछ तभी होती है जब आप अपने सभी काम निपुणता से कर सकते हैं. जिनमें एक काम बातचीत करना भी है.
बोलना,भावों को कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक व्यक्त कर देना और आवश्यकता हो तो एक तथ्य को विस्तार से समझा भी देना यानी दोनों योग्यताओं का योग कर लेना.
मैं देवर्षि नारद कभी भाषा एवं शब्द-ब्रह्म विषय को पढ़ाने वाले गुरुकुलों का कुलगुरु, कुलपति, Councilor हुआ करता था. बाद मे मुझे पत्थर की प्रतिमा बना दिया गया.
अभी मेरा जो रूप है वह यक्षों-राक्षसों का दिया हुआ है. अपना परिचय विस्तार से आगे दे रहा हूँ. अभी तो आप अपने आप के बारे में बस इतना ही जानें कि आपका अहंकार ही आपको ऊंचाई तक ले जाता है लेकिन अपनी प्रकृति को वश में करें और अहंकार को व्यक्त नहीं होने दें. यह तभी सम्भव है जब आप शब्द ब्रह्म को समझ कर उसका उपयोग करें.
5 शब्द का शब्दार्थ-तत्वार्थ -भावार्थ
धार्मिक वैज्ञानिक भाषा संस्कृत की शब्दावली में शब्दों के तीन-तीन अर्थ चलते हैं।
शब्दार्थ:-
प्रत्येक शब्द का एक ही शब्दार्थ होता है। महेश्वर सूत्र के अनुसार सुनिश्चित करके बनाये गए शब्द का शब्दार्थ जानना पहली आवश्यकता है। यदि आप शब्द के शब्दार्थ की अवहेलना करके सीधे भावार्थ में चले जाते हैं तो भावनाओं में बह जाते हैं.
तत्वार्थ :-
तीन तात्विक अर्थ होते हैं.....
1. आध्यात्मिक (आत्मिक ) जिसमें ब्रह्म का भाव हो. (मनोविज्ञान) Psychology .....Event
2. आधिदैविक (दैविक ) जिसमे शरीर का भाव हो.(शरीरविज्ञान) Physiology.....Element
3.आधिभौतिक (भौतिक ) जिसमे देह का भाव हो.(समाजविज्ञान) Sociology.राजनीति, अर्थशास्त्र
देह Decompose हो कर भोग को प्राप्त हो जाती है. जबकि शरीर का तात्पर्य अणुओं-परमाणुओं से है जो मरते नहीं है.
ब्रह्म जिस चुम्बकीय क्षेत्र magnetic field को कहते हैं वह भी नष्ट नहीं होता. भौतिक देह से जुड़ा भौतिक जगत /समाज देह की तरह ही परिवर्तनशील है. समाज विज्ञान पुनः तीन भागों में वर्गीकृत होता है. राजनैतिक समाज, आर्थिक समाज, पारिवारिक समाज. इन सभी विषयों के अर्थ भी क़रीब-क़रीब सुनिश्चित होते हैं. जो तर्क संगत तात्कालिक तात्विक तात्पर्य के अनुसार निकाले जाते हैं.
भावार्थ :-
एक ही शब्द के विविध भावार्थ होते हैं. भाव के अर्थ में अनेक बार शब्दार्थ और तत्वार्थ दोनों गौण हो जाते हैं. अतः यहाँ यह देखा जाता है कि बोलने वाले का मन्तव्य क्या है ? एक ग्रामीण अधिक संवेदनशील, अधिक समझदार, अधिक ज़िम्मेदार, अधिक विद्वान् हो सकता है. लेकिन वह मान्यता प्राप्त साहित्यिक शब्दों को नहीं बोलता है तो उसे गँवार कह दिया जाता है, जबकि उस समय उसका मन्तव्य समझने में ही समझदारी होती है.
अनेक बार शब्द शुभ और अशुभ के चक्कर में फंस जाते हैं इस सन्दर्भ में...
एक अक्रोध
गाँव के सभी लोग बुआजी से इसलिए परेशान थे क्योंकि बुआजी अशुभ बोलती थी .एक बार गाँव वालों ने कहा :"बुआजी हम आपको पूरे वर्ष का अनाज एक साथ दे दें तब तो आप हमें कभी भी अपशगुन की बात नहीं बोलेंगी ?."
बुआजी::"पक्का रहा क्या तुम हर हालत में मुझे साल भर का अनाज एक साथ दोगे ?"
गाँव वाले :"हाँ हाँ पक्का रहा "
बुआजी :"देखो कान खोलकर सुन लो! मुझे साल भर का अनाज एक साथ चाहिए, भले ही तुम्हारे खेतों में आग लग जाये."
इस तरह के अशुभ शब्द आपको तब प्रभावित करते हैं जब आपका ब्रह्म प्रभावित हो जाता है वर्ना तो तांत्रिक क्रियाएं भी आप को प्रभावित नहीं कर सकती हैं.
6 श्री मत भागवत गीता शब्द कोष है.
एक छोटा सा आख्यान है. गीत की तरह गाई जाने वाली शब्द रचना है. जिसके अंत में लिखा है "मैंने तुझे अशेषेण बता दिया है अब जो इच्छा है वह कर" अर्थात दुनिया का ऐसा कोई विषय नहीं है जिसके मूल सैद्धांतिक सूत्र गीता में संकलित नहीं हैं.
जिस तरह गीता के ज्ञाता कबीर दास जी की रचनाएँ प्राथमिक कक्षाओं से लेकर मास्टर डिग्री तक अनवरत चलती है और सबसे अधिक मास्टर ऑफ़ लिट्रेचर कबीर की रचनाओं पर शोध करने वालों को मिली हैं. उसी तरह एक समय ऐसा भी था जब गुरुकुलों में प्रारंभ से लेकर आचार्य तक की उपाधि तक गीता अनवरत चलती थी. गीता के विभूति योग में भाषा के तीन मूल सूत्रों को भगवन ने अपनी विभूति बताते हुए कहा है.- अक्षरों में मैं अकार हूँ, समासों में द्वंद्व नामक समास हूँ और कालों में विश्वोंमुखी अक्षय काल हूँ. भाषा के इन तीन आधारों को समझना कल्याणकारी होगा.
7 अक्षरों में अकार
भाषा में वाक्य जब क्षर होता है तो शब्द बनकर बिखर जाता है. शब्द जब क्षर होता है, टूटता है तो अक्षर बन कर बिखर जाता है. लेकिन अक्षर उसे कहते हैं जो क्षर होने (टूटने) के विपरीत परस्पर जुड़ता है और शब्द बनता है. इस तरह अक्षर भाषा की मूल रचना, Raw material है .इन अक्षरों में सबसे पहला और सबसे प्रभावशाली अक्षर है
अ. अंग्रेजी की
अ ब स द में भी
अ पहला अक्षर है. अल्फाबेटिक प्रणाली की मूल अरबी/उर्दू में भी
अलिफ़-बे-पे-ते-टे-से; में भी पहला अक्षर
अ है. अधिकांश भाषाओं में ऐसा ही है. यह एक ऐसा स्वर/सुर है जो गूंगा भी बोल सकता है.
लेकिन साहित्यिक शब्दावली में जब किसी शब्द के आगे अ लग जाता है तो उसका तत्वार्थ "नहीं" लिया जाता है. जब कि यह ग़लत है जैसे कि अज्ञान का अर्थ ज्ञान नहीं होना लिया जाता है जब कि यह ग़लत है. अ को 'नहीं' के अर्थ में लेना शब्द के अर्थ को अनर्थ कर देता है.
ज्ञान नहीं होने के अर्थ में अनभिज्ञता शब्द का उपयोग होता है. अर्थात जहाँ अन और अंग्रेज़ी में भी un जुड़ कर unknown बनता है तब नहीं की तरह अर्थ देता है. जब कि शब्द के आगे अ लगने से मूल शब्द के विपरीत अर्थ हो जाता है अर्थात अज्ञान का अर्थ है खोटा ज्ञान,ग़लत ज्ञान, ग़लत जानकारी, मूल ज्ञान के विपरीत ज्ञान.
ज्ञानी = पुण्य का संचय रखने वाला
अनभिज्ञ = निष्पाप, अनघ,अनघड़
अज्ञानी = पाप से ग्रसित
अव्यवस्था = जैसी व्यवस्था होनी चाहिए उससे उलट व्यवस्था
इस तरह अ अक्षर सभी अक्षरों में विभूति रूप है.विभूति अर्थात अपने विषय के धर्म में यानी अपने विषय की गुण धर्मिता में यानी अपने विषय के कर्त्तव्य में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्टतम भूमिका निभाने वाला .
8 समासों में द्वंद्व समास
अक्षर जब समास होते हैं, compound बनते हैं तो शब्द रचना बनती हैं तथा दो शब्द जब समास होते हैं तो दो भाव जुड़कर एक परिभाषा बन जाती है.जैसे सम+गत =संगत,सम+गीत=संगीत,सम+आज=समाज,सम+प्रदाय=सम्प्रदाय ,सम+विधान=संविधान ,परम+आत्मा =परमात्मा ,परम+अर्थ=परमार्थ ,अव+धारणा =अवधारणा,अधि+आत्म=अध्यात्म इत्यादि .
समासों में द्वंद्व समास उसे कहा जाता है जिसमे दो शब्दों में आगे पीछे का क्रम बदल जाता है. क्रम बदलते ही अर्थ बदल जाता है. इन अर्थों को लेकर अंतर्द्वंद्व बना रहता है,द्वन्द्वात्मक अर्थ निकलते है. उदाहरण के रूप में :
आचार्य-शंकर...........व्यक्ति का नाम
शंकराचार्य................उपाधि
कुलगुरु..................पद या उपाधि
गुरुकुल....................संस्था का नाम
व-ए-द = वेद............विद धातु से बना शब्द है जिसका अर्थ है विद्याओं के विज्ञान की जानकारी. यह क्रिया है.
द-ए-व = देव............वैज्ञानिक विद्याओं को जानने वाला विद्वान्. यह संज्ञा हो गया.
(नोट:- जब-तब और शब्द जुड़ते जायेंगे. आप निरंतर देखते रहें.)
काम-अर्थ................ कामार्थ (अंग्रेज़ी रूपांतरण कॉमर्स) व्यापार से सम्बंधित
अर्थ-काम................सार्थक काम
राज-नीति...............राज करने की नीति
नीति-राज...............नीति समर्थक,नैतिकता का राज
9 "विश्वोंमुखी अक्षय काल हूँ"
"विश्वोंमुखी अक्षय काल हूँ" का संकेत भाषा के तीसरे आयाम भूतकाल-वर्तमानकाल-भविष्यत् काल की तरफ़ है.
इस तरह "अ" का उपयोग जिस शब्द के आगे किया गया है उसका अर्थ उस शब्द के विपरीत समझें न कि "नहीं" के रूप में.
द्वंद्व समास की विशेषता है एक ही शब्द में पूरे वाक्य जितना अर्थ बता देना.
इसके साथ जब भूतकाल-वर्तमानकाल-भविष्यत् काल की तरफ संकेत देने वाले अक्षर था,थी,थे;हूँ, है;गा, गे, गी; का उपयोग करके शब्द रचना करने में पारंगत हो जाये हैं तो आप बिना व्याकरण के सिर्फ़ शब्द ब्रह्म से काम चला लेते हैं.
आप जब मौन रह कर सिर्फ़ संकेत से ही अपनी भाव अभिव्यक्ति कर लेते हैं तो उसे शब्द ब्रह्म का उल्लंघन कहा जाता है. लेकिन जब आप एकांत में रहते हुए सिर्फ़ सोचते हैं और वे विचार उस विषय से जुड़े व्यक्तियों के ब्रह्म में स्वतः उपज जाते हैं तो उसे शब्द ब्रह्म का उल्लंघन करने वाली एकात्म-ब्रह्म परंपरा कहा गया है.
लेकिन जब आप ब्रह्म परंपरा और वेद परंपरा दोनों को यानी भाव और अभिव्यक्ति (भावाभिव्यक्ति) दोनों को एक साथ लेकर चलते हैं तो इसे अद्वैत परंपरा कहा जाता है.
लेकिन जब आप ब्रह्म/brain को भ्रम में ले जाते हैं तब वेद(विद्याओं का कामार्थ उपयोग करते हैं तब आप व्यक्ति और सामूहिक दोनों रूपों में टूट कर दो (द्वैत) हो जाते हैं.
10 अध्यात्म = स्वभाव +प्रवृति+नीयत
जिस तरह एक शब्द के तीन तत्वार्थ निकलते हैं. उसी तरह तीन गुना तीन के अनुसार अध्यात्म के भी तीन तात्पर्य निकलते हैं
स्वभाव :
वाक्यों में प्रयोग करें तो ये वाक्य बनते हैं.-
व्यक्ति को चाहिए की वह स्वयं के स्वाभाविक स्वाभाव में स्वाभाविकता को बनाये रखे .
व्यक्ति को चाहिए की वह स्वयं के स्वभाव की स्वाभाविक स्थिति को ना तो छिपाए ना ही उसका त्याग करे.
स्वाभाविक रूप से सहज रहना ही अध्यात्म है.
प्रवृति :
जब आप अपना यानि ब्रह्म का सृजन कर रहे होते हैं, अपना करियर बना रहे होते हैं,शिक्षित हो रहे होते हैं, अध्ययन कर रहे होते हैं, ब्रह्म विस्तार ले रहा होता है,स्मृति की सामर्थ्य बढ़ा रहा होता है तब स्वयं के शरीर की प्रकृति बाधा डाल सकती है.अतः अपनी प्रकृति को अधीन करके ब्रह्म अपना सृजन करता है.क्योंकि:
जैसी शरीर की प्रकृति होती है वैसी ही प्रवृति /फ़ितरत बन जाती है अतः वह वैसी ही वृति /जॉब/रोजगार का चुनाव करता है उसमें कोई क्या करेगा?
अतः यदि ऐसी आर्थिक-सामाजिक-प्रशासनिक पद्धति विकसित कर दी जाये जिसमें यह सुविधा हो कि : जिसकी जैसी प्रवृति हो वह वैसा ही रोज़गार चुन सके तो उसे आध्यत्मिक व्यवस्था पद्धति कहा जायेगा .
तब ना तो कोई अकर्मण्य रहेगा ना ही अयोग्य रहेगा.
शरीर की प्रकृति कैसे अधीन हो यह आधिदैविक विषय शरीरविज्ञान का विषय है जो आहार द्वारा संचालित होता है. इस विषय में विस्तार से तो वेदव्यास के ब्लॉग में से जानें. यहाँ इतना ही जानना पर्याप्त है कि:
जैसा खाए अन्न वैसा ही हो मन .
इस तरह आधी-व्याधि साथ-साथ चलती है.
नीयत:
स्वभाव वैष्णव परम्परा के सांख्य-योग का शब्द है,.प्रवृति शैव परम्परा के सांख्य-योग का शब्द है,.जबकि नीयत ब्राह्मण परम्परा के सांख्य-योग का शब्द है. इसके वाक्य बनते हैं.
जैसी नीयत होती है वैसी ही नियति बन जाती है.
नीयत से किये हुए कर्म का फल नियति द्वारा निर्धारित हो जाता है.
आपकी नीयत यदि लक्ष्य को प्राप्त करने की होती है तो नियति आपको अवश करके लक्ष्य की तरफ धकेलती है.
आप अपनी नीयत सुनिश्चित करलें आपका लक्ष्य सुनिश्चित हो जायेगा तब नियति आपको लक्ष्य तक पंहुचा कर छोड़ेगी ..
मैं देवर्षि नारद ब्रह्मा का मानस पुत्र हूँ .मैं जिस मानस की उपज हूँ उस मानस के दो पुत्र ,मुनि वेदव्यास एवं स्वायमभू अधिनायक और भी हैं . हमारे पिता बृज-मोहन वशिष्ठ की नीयत ही थी कि नियति ने हमें उनके मानस से पैदा किया .